Thursday, December 10, 2009

84 का दर्द, गुजरात की त्रासदी और बेजुबान आदिवासी

जिस पत्रकार ने गृह मंत्री पी चिदबंरम पर जूता उछाल कर 84 के दंगों के घाव को उभारा, उसी पत्रकार जनरैल सिंह ने किताब लिखी है...आई एक्यूज । खुद की आपबीती...परिवार का दर्द और सिख समुदाय की हर त्रासदी 165 पन्नों की हर लकीर में दर्ज है। दिल्ली की सड़कों पर कैसे सिखों का कत्लेआम 31 अक्तूबर से लेकर 6 नवंबर 1984 तक होता रहा और समूचा पुलिस-प्रशासन या कहें राज्य व्यवस्था गायब हो गई, इसे जनरैल की आपबीती के अक्स में पढ़ना किसी भयावह सपने की तरह है।

इसी सच को 3 नवंबर 2009 को लोकसभा में अकाली दल की सांसद और प्रकाश सिंह बादल की बहू हरसिमरत कौर ने आपबीती के तौर पर रखा । समूचा सदन स्तब्ध हो गया। आक्रोश और दर्द में सांसद तालिया बजाने लगे। कुछ इसी तरह का दर्द 2001 में गुजरात दंगों को लेकर भी लोकसभा में भी उठा और किताबों के जरीये आपबीती भी देश ने देखी सुनी। लेकिन जब इन दोनों का राजनीतिकरण हुआ तो 84 के दंगे, जिसे सिख नरसंहार मानते है, भाजपा के लिये एक वैसा ही राजनीतिक हथियार बन गया जैसा गुजरात के 2001 के दंगे। जिसे मुस्लिम नरसंहार मानते है और जो कांग्रेस के लिये कभी न चुकने वाला राजनीतिक हथियार है।

असल में यह दोनों घटनाये ऐसी हैं, जिसे शब्द दिये जायेंगे तो मानवता को शर्म आयेगी ही। चाहे वह गले में टायर डालकर जिन्दा जलाना हो या फिर किसी महिला का सड़क पर गर्भ चीरकर हत्या करना । रोंगटे खड़े होंगे ही। "मै अपने एक साल के बेटे लाडी को नहला रही थी..कि सामने से आते झुंड ने आवाज लगायी कोई बचना नहीं चाहिये...उस भीड ने दुकान से कैरोसिन लिया और घर में आग लगा दी। हम घर से बाहर भागे। सरदार जी पर भीड ने हमला कर दिया। लोहे की राड के हमले से उनका सर खून से लथपथ हो गया। मेरे हाथों में उनका दम टूटा। मेरे हाथ कांप रहे थे, और आज भी अपने हाथ देखती हूं तो हाथ कांपने लगते है।"

यह 84 का सच है, जिसे जनरैल ने शब्द दिये हैं। और सासंद हरसिमरत कौर के मुताबिक 31 अक्तूबर 1984 को वह जहा अपने दो भाइयों के साथ फंसी, वहां वह तेज सांस भी नहीं ले पा रही थी क्योंकि मारने वाले जीवित सांस को महसूस कर लते तो सांस ही बंद कर देते। लेकिन सवाल यही से खड़ा होता है क्या 84 या 2001 का जिक्र करते वक्त संसद को इसका एहसास है कि देश में बहुत सारे ऐसे सच हैं, जिन्हे आजतक शब्द नहीं दिये गये। और अपनी आपबीतीकरने बताने वाला देश का एक बड़ा तबका आज भी सांस दबाये जी रहा है लेकिन उसकी आवाज तो दूर उसका रुदन भी कोई नहीं सुन रहा।

"रात का तीसरा पहर था । अचानक कुछ खट-पट हुई । कुछ व्यक्ति मेरे पति को बुलाने आये । मैं रसोई में सो रही थी । थकान होने की वजह से उठी नहीं । सुबह देखा तो पति घर में नहीं था । गांव में पूछा लेकिन कुछ पता नहीं चला । इसकी जानकारी सरपंच को दी, कोतवाल के बताया । साथ ही पांच किलोमीटर दूर स्वास्थ्य केन्द्र चला रहे डां. प्रकाश आमटे को बताया। बाद में पता चला पति हवालात में बंद हैं। सभी ने आश्वसन दिया दो-चार दिन में छूट जायेगे । मैने भी मान लिया क्योंकि पुलिस अक्सर लोगो को पकड़ कर ले जाती और कुछ दिनो बाद छोड़ देती । लेकिन मेरा पति घर नहीं लौटा। दस दिनों बाद तहसीलदार गांव पर आया और अहेरी थाना में पड़े शवों को पहचान करने के लिए कहा। थाने में मेरे पति की लाश पड़ी थी । साथ ही तीन अन्य लाशें भी थीं। मैंने कहा , यह तो मेरा पति किश्टा पोजलवार हैं। इसे किसने मारा । पुलिस ने कहा यह नक्सली था, मुडभेड़ में मारा गया ।" 55 साल की शांताबाई कसम खाती रही कि उसके पति का नक्सलियों से कोई संबंध नहीं है लेकिन पुलिस नहीं मानी । एक कागज पर शांताबाई के अगूठे के निशान लिये। फिर 60 साल के किश्टा सहित चार नक्सलियों को मारने का एलान कर दिया गया। जिलाधिकारी ने प्रेस नोट जारी करवाया। अगले दिन अखबारों में चार नक्सलियों के मुठभेड़ में मरने की खबर छपी। शांताबाई का घर उजड़ा। बच्चों के सर से बाप का साया। घर दाने दाने को मोहताज हुआ लेकिन किसी पुलिस-प्रशानिक अधिकारी ने सुध नहीं ली। यह वाकया 1991 का है । और यह अहेरी का वहीं इलाका है जहां डेढ महीने पहले ही 27 पुलिस कर्मियों को माओवादियो ने बारुदी सुरंग से उड़ा दिया। जिसके बाद मुबंई से लेकर दिल्ली तक में हंगामा मचा और गृहमंत्री ने नक्सल प्रभावित इलाकों में एक ग्रीनहंट ऑपरेशन चलाने की बात कही।

लेकिन इसी अहेरी में 1991 में क्या हुआ कोश्टा पोजलवार के अलावे गांववालों ने अन्य तीन की भी पहचान की। अन्य तीन जोगी लताड,डीलू जोगई और जग्गा कुन्जाम थे। जिन्हें कृष्णार,आरेवाडा और हुल्लुभीत्त गांव से 8 दिसबंर 1991 में पुलिस ने उठाया। और 19 दिसंबर 1991 को कीर नाले के करीब मार दिया । जिन्हें बाद में नक्सली करार दिया । बाब आमटे के बेटे प्रकाश आमटे के स्वास्थय केन्द्र से दो किलोमीटर दूर इनभट्टी गांव के आदिवासी चुक्कू चैतू मज्जी के मुताबिक 8 दिसबंर 1991 को उसके भाई लच्छू को छिदेवाडा गांव के पास नाले के करीब पुलिस ने गोली मार दी । गांव वालों ने देखा भी । लेकिन किसी गांववाले में इतनी हिम्मत नहीं थी कि लच्छू के शव को भी देखने जाये । आठ दिनो तक शव वहीं पड़ा रहा। लच्छू कबड्डी का अच्छा खिलाड़ी था और पुलिस ट्रेनिंग में शामिल भी हुआ था लेकिन नक्सलियों के घमकाने पर पुलिस की ट्रेनिंग छोड़ी और गुस्से में आई पुलिस ने उसकी जान ले लेी। महाराष्ट्र सरकार की पुलिस फाइल के मुताबिक 1990 से 1992 का दौर ऐसा था, जिसमें ढाई सौ से ज्यादा आदिवासियों को पुलिस ने मार गिराया और चार सौ से ज्यादा आदिवासियों को हवालात में इस आरोप के साथ बंद कर दिया कि वह नक्सलियों के हिमायती हैं। जो अलग अलग हिंसक घटनाओं को अंजाम देने में सहयोगी रहे। इनमें से करीब सवा दो सौ पर उस दौर में आतंकवादी कानून टाडा लगाया गया।

सरकार की इस रिपोर्ट से उलट आदिवासियों का अनकहा सच है। जिन सैकड़ों नक्सलियों को मारा गया उनके नाम आज भी विदर्भ के तीन जिलो गढचिरोली,चन्द्रपुर और भंडारा में हर आदिवासी को याद हैं। क्योकि उनके घर के बच्चे अब बड़े हो चुके है और उनपर पुलिसिया निगरानी आज भी रखी जाती है। जिससे हर घर की पहचान आज भी दो दशक पहले से जुड़ी हुई है । जिन पर टाडा लगाया गया। अब वह धीरे धीरे छूट रहे है । जो खुशकिस्मत निकला वह 1995 में टाडा कानून खत्म होते ही एक दो साल बाद छूट गया । जिसकी किस्मत ने साथ नही दिया वह 14 साल तक जेल में रहा । और जिनकी किस्मत ने साथ नहीं दिया वैसे साढे सात सौ से ज्यादा आदिवासी हैं, जो बिना जुर्म 10 से 14 साल जेल में रहे। इनमें से अभी भी सैकड़ों आदिवासी ऐसे हैं, जो जेल से तो छूट गये हैं लेकिन टाडा कानून के दायरे में अपने मामलो के लेकर आदालतो के चक्कर अभी भी लगाते हैं। दुर्गू तलावी, मनकु कल्लो, बुधू दूर्ग, मानु पुगाही समेत तीन दर्जन से ज्यादा आदिवासी ऐसे हैं, जिन्होंने 14 साल जेल में गुजारे। कमोवेश हर के खिलाफ टाडा की धारा 3,4 और 3/25 आर्म एक्ट समेत आईपीसी की धारा 302,307,147,148 लगायी गयी। लेकिन जब टाडा के तहत सुनवायी हुई तो किसी भी आदिवासी पर कोई भी धारा नहीं बची। यानी बिना किसी जुर्म में आरोपों के 14 साल यानी उम्र कैद की सजा इन आदिवासियो ने भोग ली । कई आदिवासी तो जेल में मर गये। जंगल से निकलकर जेल का जीवन आदिवासियो की समझ से बाहर रहा। गढचिरोली के सावरगंव में रहने वाले रेणु केजीराम उईके की मौत नागपुर जेल में 1 सितबंर 1994 को हो गयी। हो सकता था कि रेणु केजीराम 23 मई 1995 तक जिन्दा रह जाते तो टाडा कानून निरस्त होते ही छूट जाते लेकिन 1 सितबंर 94 में मरे रेणु केजीराम के खिलाफ अपराध संख्या 37/ 92 , 31/92 के तहत टाडा की धारा 3,4,5 और आर्म एक्ट की धारा 3/25, के अलावे आईपीसी की धारा 307,334,353,435 लगायी गयी ।

यह अलग बात है कि टाडा कानून खत्म होने के बाद अदालत ने जब पुलिस फाइल को टटोला तो उसे भी कोई सबूत रेणु केजीराम उईके के खिलाफ नहीं मिले । 21 अगस्त 1995 को इसी तरह आदिवासी युवक बालाजी जेल में मर गया और अहेरी ताल्लुका के कोयलपल्ली गांव का भंगेरी भीमराव सोयाम जेल में पागल हो गया । आत्म हत्या की की बार कोशिस की । जेल आधिकारियों ने माना भी जंग की आबो-हवा इन्हे जेल में कैसे मिलेगी । ऐसे में यह पागल नहीं होगे तो क्या होंगे । लेकिन सभी पर इतनी कडी धारायें लगी है कि जेल से छोड़ा भी नहीं जा सकता है । लेकिन यह त्रासदी यहीं नहीं रुकती। आदिवासी महिलाये भी शिकंजे में आयी । 1991-92 में ताराबाई, रुखमाबाई,लीला ,वत्सला , तेंचु की उम्र 18 से 22 साल के बीच थी। जाहिर है यह सभी अब बूढ़ी लगने लगी हैं। लेकिन जब इनकी उम्र सपनों को हकीकत का जामा पहना कर जिन्दगी की उड़ान भरने की थी तब चीचगढ थाने में इनके खिलाफ अपराध संख्या 366-92, 72-91 के तहत मामला दर्ज किया गया । 14 दिसबंर 1991 को सभी को जेल में डाला गया। टाडा की धाराये भी लगायी गयी। छह से दस साल तक यह सभी जेल में रही। लेकिन यह सच भी यही नहीं थमा। सौ से ज्यादा यहां की महिलाओं ने चार से 12 साल तक जेल में काटे। दर्जनों बच्चों का जन्म जेल में हुआ । 8 मार्च यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस। लेकिन 8 मार्च 1991 को गढचिरोली के एटापल्ली तहसील के मुडदापल्ली गांव में यह कहर की तरह टूटा। राज्य रक्षा पुलिस के जवानों ने 25 साल की मैनी सनुहिचामी, 19 साल की जुनी गुरियागोटा, 22 साल की बिदी सोन सुहलेडी और 17 साल की भेसू मडावी को अपनी हवस का शिकार बनाया। उसके बाद पंचायत को ही सुरक्षाकर्मियो ने बंदूक की नोंक पर यह कहते हुये लिया कि मामला उठा तो समूचे गांव पर टाडा लगा दिया जायेगा। गांव के बुजुर्ग आदिवासियों ने जब यह मामला उठाया तो पुलिस ने शफनराव धर्ममडावी, दामल घर्ममडावी और दसरथ कृष्ण को पकड़ लिया और नक्सलियों का हिमायती करार देकर टाडा और आर्म्स एक्ट लगा दिया। दशरथ को जेल में छह साल काटने पडे वही शफनराव और दामल दो साल बाद छूट गये । जो खुद को खुशकिस्तम मानते हैं।

दरअसल, इस तरह खुशकिस्मत मानने वालो की तादाद में कम नहीं हैं। आदिवासियों के मामलों के लेकर अदालत में जिरह करने वाले एकनाथ सालवे की उम्र 75 साल पार कर चुकी है। एकनाथ साल्वे ने बीते पच्चीस साल उसी लडाई में लगा दिये कि आदिवासियों के हक का सवाल भी राज्य व्यवस्था में सवाल बन सके। लेकिन समूची व्यवस्था किस तरह काम करती है, यह आज भी आदिवासियों के बीच खड़े होकर इस बात से समझा जा सकता है कि जो आदिवासी बिना जुर्म भी दो से तीन साल के भीतर जेल से छूट आये वह सरकार और अदालत को इसके लिये पूजते हैं। उनका मानना है कि सरकार और अदालत ना होती तो उनकी मौत जेल में ही हो जाती । लेकिन जेल जाना ही क्यों पड़ा जब कोई अपराध नहीं किया तो आदिवासी भलेमानस की तरह कहते है यह तो.. पुलिस और सरकार का हक है। अगर केन्द्र सरकार के आदिवासी कल्य़ाण विभाग और राज्यों के आदिवासी कल्य़ाण मंत्रालय के आंकड़ों को मिला दिया जाये तो बीते दो दशकों में औसतन हर साल एक हजार से ज्यादा आदिवासी उसी व्यवस्था के शिकार होकर मारे जाते हैं, जिस व्यवस्था का काम है, इनकी हिफाजत करना। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की मानें तो आदिवासियों की जुबान पुलिस-प्रशासन या सीधे कहे तो सरकारे आज भी नहीं समझ पाती इसलिए बेमौत सैकड़ों आदिवासी हर महीने मारे जा रहे हैं।

जाहिर है यह फरहिस्त इतनी लंबी और दर्दनाक है कि किसी को भी अंदर से हिला दे। लेकिन यह ना तो 84 के सिख दंगो या 2001 के गुजरात दंगो की तरह राजनीतिक मुद्दा है ना ही इनकी त्रासदी जानने के लिये शब्द रचे गये। सिख दंगो पर जनरैल सिंह की किताब पर जाने माने पत्रकार खुशवंत सिंह की टिप्पणी है कि ...."आई एक्यूज...घावों को हरे कर देता है जो अभी भरे नहीं है । यह उन सभी को जरुर पढ़ना चाहिये जो यह चाहते है कि दोबारा इस तरह का वीभत्स अपराध ना हो।" सवाल है, कोई आदिवासियों के घाव क्यों नहीं देखता, जो त्रासदी भोगने के बाद भी कहते है, इस अपराध का हक तो सत्ता को है।

9 comments:

Vikas Kumar said...

punya ji,
maine aapka ye lekh pahle akhbar men padha, jansatta men. lekin blog par aane ke baad ek baar dubaara padha. ek trasdi jo ghat jati hai or surkhiyon men chha jati hai parantu bahut si baaten bahar hi nahi nikal pati hain.

Vikas Kumar said...

ye vahi saval hain jo mere man men hamesha uChhal-kud machate rahate hain. maine ye saval aapke ek dusre lekh par bhi post kiya tha. ho sakta hai ki aapne ise dekha hi na ho ya dekh kar najarandaj kar diya ho so is baar phir ye saval aapke samane rakh raha hun.
बाजपेयी जी,
मैं आपसे कुछ पुछ्ना चाहता हूं?
१. नक्सल आनदोलन क्या आज अपने मुख्य रास्ते से नहीं भटक गया है?
२. हम किसी भी प्रायोजन के लिए हिंसा को कैसे जायज ठहरा सकते हैं?
३. क्या आपको नहीं लगता कि नक्सलियों का एक गुट भी ये चाहता है कि उनके अधिकार वाले क्षेत्र का विकास न हो, लोगों तक सुबिधाएं न पहूंचे ताकि वो अपना राज चलाते रहें?
४. सर, मैं आपसे जानना चाहता हूं कि इस आंदोलन को खतम करने के लिए आपके पास क्या कारगर उपाए हैं या कहूं तो अगर आप देश के प्रधानमंत्री होते तो इस समस्या को कैसे हल करते?
ये सवाल मै इसलिए पूछ् रहा हूं ताकि आपके इस छोटे भाई को भी एक सही रास्ता दिखे.
आपके जवाब का इन्तज़ार रहेगा.....!

अनिल कान्त said...

आपके लेख से कई बातें जानने का अवसर मिलता है

Anita kumar said...

प्रजातंत्र और मानवाधिकार अमीरों के चोंचले हैं। असल में है जंगल राज्।

vipin dev tyagi said...

आदिवासियों का दर्द उनके साथ होने वाली और हुई नाइंसाफी,त्रासदी..शायद इसलिये सबके सामने नहीं आ पाती क्योंकि आदिवासी जंगलों में रहते हैं..झूठे नक्लसी बनाकर उन्हें मारने या जेल भेजने की खबरें अकसर मीडिल क्लास का रडार कैच नहीं करता....टीवी,अखबार,रेडियो में उनकी खबर तभी आती है जब कोई हमला होता है..या तो नक्सलियों के पुलिसवालों को मारने की खबर छपती है या फिर पुलिसिया गोली से किसी नक्सली की मौत की...नक्सली जिस तरह मौत का बारूद उड़ा रहे हैं...उसे कोई भी जायज नहीं ठहरा सकता...अपने मकसद से बहुत से नक्सली संगठन आज काफी हद तक या तो भटके हैं या फिर भटक रहे हैं...लेकिन ये बिलकुल सही है कि गुजरात या सिख दंगों की तरह आदिवासियों के साथ हुई ज्यादतियों का जिक्र और उनके दर्द को महसूस नहीं किया जाता.. आदिवासी लोग और उनके मुद्दे मीडिल क्लास के फेवरेट टॉपिक में भी नहीं आते...इतना ही नहीं जो कुछ आदिवासी,नेता बने वो भी दिल्ली पहुंचकर..शहरी चकाचौंध में खो गये...करोड़ों के चक्कर में पड़ गये...उसकी मीडिल और अपर क्लास की तरह सोचने औ समझने लगे...जो आदिवासियों को डिक्शनरी के कठिन शब्द की तरह बस मीनिंग समझने तक सीमित रखना चाहती है..

अमृत कुमार तिवारी said...

शासन और प्रशासन के अत्याचोरों की दांसतान बिल्कुल ही घिनौनी है। लेकिन आज के नक्सलियों के संदर्भ में मैं भी विकास जी के प्रश्नों के जवाब की अपेक्षा करता हूं।

विनय राजपूत said...

maine ye book bhi padi or aapka lekha bhi .....


purane yada ko taja karti hai ye book .

Kulwant Happy said...

मैंने इसके बारे में रवीश कुमार के ब्लॉग पर पढ़ा और आभार व्यक्त करने के लिए आ गया। किताब तो किताब। रोंग़टे तो आपके लेख ने भी खड़े कर दिए।

अहिंसा का सही अर्थ

Unknown said...

Namaste sir, aapka fan hu to aaj aapke purane blogs padh rha tha. Lekin is article ne mujhe or meri soch ko jhakhor kar rakh diya hai. Mai abhi b believe nhu kr pa rha hu ki humare is hindustan me aisa b hota hai. Shayad bahot had tak aaj b hota hoga. Shayad iska ilaaj b un logo ko kabhi naseeb na ho. Thank u sir kam se kam aapne to shabd diye unki kahani ko