Wednesday, February 3, 2010

रामू का प्रण और अमिताभ का 'रण'

26/11 के बाद सीएम विलासराव देशमुख की कुर्सी खिसकने ने ही शायद मीडिया की ताकत का एहसास रामगोपाल वर्मा को कराया होगा, क्योकि घायल ताज होटल में आंतक के चिन्ह को देखना सीएम की जरुरत होती है, लेकिन कलाकार बेटे रितेश देशमुख और रामगोपाल वर्मा के लिये यह किसी फिल्मी सेट सरीखा रहा होगा। हो सकता है किसी पर्यटक की तरह रामगोपाल वर्मा तब आंतक के चिन्हों में अपनी अगली फिल्म के आंतक का ताना-बाना बुन रहे होगें। लेकिन इस चहल कदमी के 72 घंटे बाद ही जिस तरह देशमुख को कुर्सी छोडनी पड़ी तब पहली बार रामगोपाल वर्मा ने ताज पर हुये हमले के आंतक से बडे आंतक के तौर पर मीडिया को माना और निशाना भी साधा। हो सकता है तभी रामगोपाल वर्मा ने प्रण किया हो वह रण बनायेगे और मीडिया के गोरखधंधे को उसकी प्लाटेंड खबरो को बेनकाब करेंगे।

लेकिन सीएम के बदले पीएम की कुर्सी और आंतकवादी घमाके के पीछे राजनीतिक चालें। पहली नजर में कहा जा सकता है कि रण का प्लाट रामगोपाल वर्मा के दिमाग में ताज हमला आंतक के खिलाफ देशमुख की पहल लेकिन फिर भी सीएम की कुर्सी का जाना और उसमें मीडिया का तड़का। कुछ भी अलग नहीं है रण का प्लाट। सिर्फ किरदार और घटनाओं को बड़े कैनवास में उकेरने की कोशिश की गयी है। लेकिन अपनी बात को कहने की जितनी जल्दबाजी रामगोपाल वर्मा को रही, उसी का अक्स फिल्म-निर्णाण में भी नजर आया। मीडिया के जरिए ये ही इस बात को प्रचारित किया गया कि अब खबरें बनती नहीं बनायी जाती है और कैसे इसके लिये रण देखें। लेकिन रण एक फिल्म है और फिल्में बनती नहीं बनायी जाती है, इसी सच को रामगोपाल भूल गए। सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ की मौजूदगी विश्वसनीयता पैदा करती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन उसके साथ स्क्रिप्ट-डॉयलाग से लेकर एक सकारात्मक समझ जो प्रोडक्शन के साथ साथ विषय-वस्तु को लेकर उसके अनुकूल वातावरण तैयार करें यह भी जरुरी होता है।

लेकिन रण कुछ इस तरह बनायी गयी है जैसे आज के न्यूज चैनल में संपादक को लगने लगता है कि वह कमरे में बैठ जो सोच रहा है वही आखिरी सच और लोकप्रिय हकीकत है। इसे दिखाने के लिये रामगोपाल वर्मा भी मान लेते हैं कि जब उनका निर्देशन है और स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन है, तो कुछ भी चलेगा। इस समझ में उनकी अपनी आग में वह पहले भी हाथ जला चुके हैं और फिर उसी आग सरीखे रण को सच मानने लगे। मीडिया सामूहिकता का बोध कराती है और सरोकार से चलती है। संयोग से यह दोनो तत्व आज के न्यूज चैनल से गायब होने लगे हैं। रण इस स्थिति को पकड़ने के लिये खुद ही सामूहिकता और सरोकार से दूर होती जाती है। रण के रिलीज होने से पहले इस बात को प्रचारित किया गया कि फिल्म में जिस न्यूज चैनल की विश्वनीयता मानी गयी वह हकीकत में एनडीटीवी 24/7 है और अमिताभ बच्चन ने प्रणव राय के चरित्र को ही जिया है।

चूंकि फिल्म रण के चैनल का नाम इंडिया 24/7 है तो भ्रम पैदा होता ही है। फिर टीआरपी की दड़ में जो चैनल नंबर वन है उसे चलाने वाला और कोई नहीं कभी इंडिया 24/7 में काम कर चुका एक पत्रकार ही है। इस लिहाज से प्रणव राय के साथ काम करने वाले दो शख्स मैदान में मौजूद है। लेकिन फिल्म में इस पत्रकार को टीआरपी की दौड में सैक्स-स्कैंडल और सतही खबरों को दिखाने वाला बताया गया। वही पहला मौका है कि रामगोपाल वर्मा की फिल्म में महिला चरित्रों की मौजूदगी बेवजह है। यानी किसी भी महिला चरित्र के पास कोई ऐसा काम तो दूर, डायलाग तक नहीं है जिससे दर्शक उसका इंतजार करे। जबकि प्रणव राय की खासियत है कि वह महिला रिपोर्टर से लेकर साथ काम करने वाली हर महिला को य़ह एहसास नहीं होने देते कि वह पुरुष प्रधान दायरे में काम कर रही है। लेकिन रामू के दिमाग में विलासराव देशमुख की कुर्सी का जाना कुछ इस तरह छाया हुआ है कि वह तुरत-फुरत में प्रधानमंत्री तक को मीडिया की वजह से तख्लिया कहलाने की होड़ में रहते है। और चूकि ताज का दौरा रामगोपाल वर्मा ने देशमुख के बेटे रितेश के साथ किया था तो मीडिया की असल समझ भी सिल्वर स्क्रीन पर रितेश के जरिए ही रण में दिखाई-बतायी जाती है। चैनल का मालिक यानी अमिताभ का बेटा जब तर्क देता है कि कोई देखेगा नहीं तो असर का मतलब क्या है, तो रितेश का जवाब आता है अगर असर ना होगा तो कोई देखेगा क्या? यह टीआरपी और खबरों को लेकर रामू की समझ रण में उभरती है। लेकिन रण यही नहीं रुकती चूकि 26/11 को लोकर देशमुख की कुर्सी जाना रामू को पल-पल याद है तो वह रितेश से ही खबर के पीछे की असल खबर निकलवाते हैं। यह सब कुछ इतनी तेजी से या कहें निजी समझ के साथ फिल्म में होता है कि एक क्षण यह भी लगता है कि जो देश में जो न्यूज चैनल चल रहे हैं और भटक रहे है उसके भीतर संवादहीनता या सच को ना समझ पाने की होड़ है। जबकि मीडिया के भीतर सच को नये सिरे से परिभाषित करने की होड़ जरूर है जिसमें राजनाति या कहे सत्ता की भागेदारी बराबरी से भी ज्यादा की है। इसलिये रण जब खबरो की कमान पर चढ़ती है तो इस तरह बिकती चली जाती है कि मीडिया सिर्फ धंधा नजर आती है। लेकिन जब रण में धंधे की कमान ढीली पड़ती है तो नैतिकता के बोल इतने उंचे हो जाते है कि वह भी भारी लगने लगते हैं। असल में रामगोपाल वर्मा ताज होटल में टहलते वक्त भी समझ नहीं पाए थे कि आंतक के बीच बालीवुड की मासूमियत भरी मौजूदगी भी धंधे का खेल ही दिखलाती है और रण बनाते वक्त भी रामगोपाल वर्मा समझ नहीं पाये कि देश मीडिया नहीं आखिरकार जनता के आसरे चलता है। और मीडिया की विश्नीयता खत्म हुई है तो इसका यह मतलब नहीं है कि आम आदमी का मनोबल भी टूट चुका है । अगर ऐसा होता तो 26/11 के बाद 3-4 दिसबंर 2008 को गेटवे आफ इंडिया के बाहर पांच लाख लोग जमा होकर राजनीति को ठेंगा नहीं दिखाते। यूं जिस तादाद में लोगों का आक्रोश उस दिन गेटवे के बाहर उमड़ा उससे ही दिल्ली की सत्ता भी चौकी थी और उसी रात 10, जनपथ पर यह फैसला हुआ था कि विलासराव देशमुख को कुर्सी छोड़नी ही होगी, लेकिन रण बिना जनता की फिल्म है। जबकि मीडिया और राजनीति का सच यही है कि वह बिना सरोकार के आगे बढ नहीं सकते।

संयोग से रण में यह सरोकार न तो चैनलों के धंधे में दिखायी देता है और न ही नैतिकता का पाठ पढ़ाते वक्त। रामू यही भूल कर गये क्योकि उन्होने रण में मान लिया कि मीडिया अपने आप में एक सत्ता है, इसीलिये फिल्म के आखिर में यह सत्ता रितेश यानी समझदार रिपोर्टर को सौंपकर देशमुख की कुर्सी जाने का कर्ज चुकाया। जबकि सच उलट है मीडिया सत्ता नहीं, सत्ता को बचाने का नया धंधा है ।

10 comments:

Saloni Subah said...

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mirtue ek satya said...

ब्लॉग जगत का घिनौना चेहरा अविनाश

भारतीय ब्लॉगिंग दुनिया के समस्त ब्लॉगरों से एक स्वतंत्र पत्रकार एवं नियमित ब्लॉग पाठक का विनम्र अपील-
संचार की नई विधा ब्लॉग अपनी बात कहने का सबसे प्रभावी माध्यम बन सकता है, परन्तु कुछ कुंठित ब्लॉगरों के कारण आज ब्लॉग व्यक्तिगत कुंठा निकालने का माध्यम बन कर रह गया है | अविनाश (मोहल्ला) एवं यशवंत (भड़ास 4 मीडिया) जैसे कुंठित
ब्लॉगर महज सस्ती लोकप्रियता हेतु इसका प्रयोग कर रहे हैं |बिना तथ्य खोजे अपने ब्लॉग या वेबसाइट पर खबरों को छापना उतना ही बड़ा अपराध है जितना कि बिना गवाही के सजा सुनाना | भाई अविनाश को मैं वर्षों से जानता हूँ - प्रभात खबर के जमाने से | उनकी अब तो आदत बन चुकी है गलत और अधुरी खबरों को अपने ब्लॉग पर पोस्ट करना | और, हो भी क्यूं न, भाई का ब्लॉग जाना भी इसीलिए जाता है|

कल कुछ ब्लॉगर मित्रों से बात चल रही थी कि अविनाश आलोचना सुनने की ताकत नहीं है, तभी तो अपनी व्यकतिगत कुंठा से प्रभावित खबरों पर आने वाली 'कटु प्रतिक्रिया' को मौडेरेट कर देता है | अविनाश जैसे लोग जिस तरह से ब्लॉग विधा का इस्तेमाल कर रहे हैं, निश्चय ही वह दिन दूर नहीं जब ब्लॉग पर भी 'कंटेंट कोड' लगाने की आवश्यकता पड़े | अतः तमाम वेब पत्रकारों से अपील है कि इस तरह की कुंठित मानसिकता वाले ब्लॉगरों तथा मोडरेटरों का बहिष्कार करें, तभी जाकर आम पाठकों का ब्लॉग या वेबसाइट आधारित खबरों पर विश्वास होगा |
मित्रों एक पुरानी कहावत से हम सभी तो अवगत हैं ही –
'एक सड़ी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है', उसी तरह अविनाश जैसे लोग इस पूरी विधा को गंदा कर रहे हैं |

अमृत कुमार तिवारी said...

"मीडिया सत्ता नहीं, सत्ता को बचाने का नया धंधा है"
बिल्कुल दुरूस्त। पहले भी आपके पोस्ट में ये बात उभर कर आ चुकी है। आज पत्रकार पत्रकारिता कम पीआर का काम ज्यादा करता है।

Sanjeet Tripathi said...

मंगलवार को आपने नई दिल्ली में चल रहे पुस्तक मेले में प्रभात प्रकाशन के स्टॉल में सुभाष मिश्र जी की किताब " मानवाधिकार का मानवीय चेहरा" का विमोचन किया। क्या छत्तीसगढ़ के इस मुद्दे और इस किताब, दोनों के संदर्भ में आपके इस ब्लॉग पर कुछ पढ़ने को मिलेगा??

Kaptan Mali said...

Rann film par apki pratikriya ka bahut din se mujhe intezar tha. excellent sir.

Unknown said...

".....मीडिया सत्ता नहीं, सत्ता को बचाने का नया धंधा है" - Sahi kaha Prasun. Jai ho!

पंकज मिश्रा said...

बहुत खूब। इसके अलाव और कुछ कहने के लिए शब्द नहीं हैं। जब से रण रिलीज हुई थी तब से इस पोस्ट का इंतजार था। इंतजार पूरा हुआ और लगा इंतजार का फल मीठा होता है। आपको शायद याद हो गणतंत्र दिवस पर मैनें आपको फोन किया था। गणतंत्र दिवस की बधाई देने के लिए। तब आपके एक सवाल पर मैं दंग रह गया कि क्या आपको गणतंत्र मिल गया। कई लोगों से इस बात को लेकर चर्चा की। सब सन्न रह गए।


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evarunjain said...

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evarunjain said...

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