जिस मुंबई पर महाराष्ट्रीय गर्व करता है और अधिकार जमाना चाहता है, असल में उसके निर्माण में उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के उन स्वप्नदृष्टा पारसियों की निर्णायक भूमिका रही, जो अंग्रेजो के प्रोत्साहन पर सूरत से मुंबई पहुंचे। लावजी नसेरवानजी वाडिया जैसे जहाज निर्माताओं ने मुंबई में गोदियों के निर्माण की शुरुआत करायी। डाबर ने 1851 में मुंबई में पहली सूत मिल खोली। जेएन टाटा ने पश्चिमी घाट पर मानसून को नियंत्रित करके मुंबई के लिये पनबिजली पैदा करने की बुनियाद डाली, जिसे बाद में दोराबजी टाटा ने पूरा किया। उघोग और व्यापार की इस बढती हुई दुनिया में मुंबई वालो का योगदान ना के बराबर था।
मुंबई की औद्योगिक गतिविधियों की जरूरत जिन लोगों ने पूरी की वे वहां 18वीं शताब्दी से ही बसे हुये व्यापारी, स्वर्णकार, लुहार और इमारती मजदूर थे। मराठियो का मुंबई आना बीसवीं सदी में शुरू हुआ। और मुंबई में पहली बार 1930 में ऐसा मौका आया जब मराठियों की तादाद 50 फीसदी तक पहुंची। लेकिन, इस दौर में दक्षिण भारतीय.गुजराती और उत्तर भारतीयों का पलायन भी मुंबई में हुआ और 1950-60 के बीच मुंबई में मराठी 46 फीसदी तक पहुंच गये। इसी दौर में मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल कराने और अलग ऱखने के संघर्ष की शुरुआत हुई। उस समय मुंबई के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई थे, जो गुजराती मूल के थे। उन्होंने आंदोलन के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया। जमकर फायरिंग, लाठी चार्ज और गिरफ्तारी हुई।
असल में मुंबई को लेकर कांग्रेस भी बंटी हुई थी। महाराष्ट्र कांग्रेस अगर इसके विलय के पक्ष में थी, तो गुजराती पूंजी के प्रभाव में मुंबई प्रदेश कांग्रेस उसे अलग रखने की तरफदार थी। ऐसे में मोरारजी के सख्त रवैये ने गैर-महाराष्ट्रीयों के खिलाफ मुंबई के मूल निवासियों में एक सांस्कृतिक उत्पीड़न की भावना पैदा हो गयी, जिसका लाभ उस दौर में बालासाहेब ठाकरे के मराठी मानुस की राजनीति को मिला। लेकिन, आंदोलन तेज और उग्र होने का बड़ा आधार आर्थिक भी था। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे। दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था। टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियो का प्रभुत्व था। लिखाई-पढाई के पेशों में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी। भोजनालयों में उड्डपी और ईरानियो का रुतबा था। भवन निर्माण में सिधिंयों का बोलबाला था। और इमारती काम में लगे हुये ज्यादातर लोग आंध्र के कम्मा थे। मुंबई का मूल निवासी दावा तो करता था कि ‘आमची मुंबई आहे’, पर यह सिर्फ कहने की बात थी। मुंबई के महलनुमा भवन, गगनचुंबी इमारतें, कारों की कभी ना खत्म होने वाली कतारें और विशाल कारखाने, दरअसल मराठियों के नहीं थे। उन सभी पर किसी ना किसी गैर-महाराष्ट्रीय का कब्जा था। यह अलग मसला है कि संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में सैकड़ों जाने गयीं और उसके बाद मुंबई महाराष्ट्र को मिली। लेकिन, मुंबई पर मराठियो का यह प्रतीकात्मक कब्जा ही रहा, क्योंकि मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल किये जाने की खुशी और समारोह अभी मंद भी नहीं पडे थे कि मराठी भाषियों को उस शानदार महानगर में अपनी औकात का एहसास हो गया।
मुंबई के व्यापारिक, औद्योगिक और पश्चिमीकृत शहर में मराठी संस्कृति और भाषा के लिये कोई स्थान नहीं था। मराठी लोग क्लर्क, मजदूरों, अध्यापकों और घरेलू नौकरों से ज्यादा की हैसियत की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यह मामूली हैसियत भी मुश्किल से ही उपलब्ध थी। और फिर मुंबई के बाहर से आने वाले दक्षिण-उत्तर भारतीयों और गुजरातियों के लिये मराठी सीखना भी जरूरी नहीं था। हिन्दी और अंग्रेजी से काम चल सकता था। बाहरी लोगों के लिये मुंबई के धरती पुत्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत से कोई रिश्ता जोड़ना भी जरूरी नहीं था।
दरअसल, मुंबई कॉस्मोपोलिटन मराठी भाषियों से एकदम कटा-कटा हुआ था। असल में संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और बाद में शिवसेना ने जिस मराठी मिथक का निर्माण किया, वह मुंबई के इस चरित्र को कुछ इस तरह पेश करता था कि मानो यह सब किसी साजिश के तहत किया गया हो। लेकिन, असलियत ऐसी थी नहीं। अपनी असफलता के दैत्य से आक्रांत मराठी मानस के सामने उस समय सबसे बडा मनोवैज्ञानिक प्रश्न यह था कि वह अपनी नाकामी की जिम्मेदारी किस पर डाले। एक तरफ 17-18वीं सदी के शानदार मराठा साम्राज्य की चमकदार कहानियां थीं जो महाराष्ट्रीयों को एक पराक्रामी जाति का गौरव प्रदान करती थी और दूसरी तरफ 1960 के दशक का बेरोजगारी से त्रस्त दमनकारी याथार्थ था। आंदोलन ने मुंबई तो महाराष्ट्र को दे दिया, लेकिन गरीब और मध्यवर्गीय मुंबईवासी महाराष्ट्रीय अपना पराभव देखकर स्तब्ध था।
दरअसल, मराठियों के सामने सबसे बडा संकट यही था कि उनके भाग्य को नियंत्रित करने वाली आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां इतनी विराट थीं कि उनसे लड़ना उनके लिये कल्पनातीत ही था। उसकी मनोचिकित्सा केवल एक ही तरीके से हो सकती थी कि उसके दिल में संतोष के लिये उसे एक दुश्मन दिखाया-बताया जाये। यानी ऐसा दुश्मन जिससे मराठी मानुस लड़ सके। बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना ने मुंबई के महाराष्ट्रीयों की यह कमी पूरी की और यहीं से उस राजनीति को साधा जिससे मराठी मानुस को तब-तब संतोष मिले जब-जब शिवसेना उनके जख्मों को छेड़े। ठाकरे ने अखबार मार्मिक को हथियार बनाया और 1965 में रोजगार के जरिये मराठियों को उकसाना शुरू किया। कॉलम का शीर्षक था- वाचा आनी ठण्ड बसा यानी पढ़ो और चुप रहो। इस कॉलम के जरिये बकायदा अलग-अलग सरकारी दफ्तरों से लेकर फैक्ट्रियों में काम करने वाले गैर- महाराष्ट्रीयों की सूची छापी गई। इसने मुंबईकर में बेचैनी पैदा कर दी। और ठाकरे ने जब महसूस किया कि मराठी मानुस रोजगार को लेकर एकजुट हो रहा है, तो उन्होंने कॉलम का शीर्षक बदल कर लिखा- वाचा आनी उठा यानी पढ़ो और उठ खडे हो। इसने मुंबईकर में एक्शन का काम किया। संयोग से शिवसेना और बाल ठाकरे आज जिस मुकाम पर हैं, उसमें उनके सामने राजनीतिक अस्तित्व का सवाल है, लेकिन शिवसेना के लिये सकारात्मक स्थिति यह भी है कि आर्थिक सुधारों ने रोजगार के अवसर खत्म किये हैं। पूंजी चंद हाथों में सिमटी है। और सामाजिक असमानता को लेकर आक्रोश मराठियों की रगों में दौड़ रहा है।
महाराष्ट्र देश का ऐसा राज्य है, जहां सबसे ज्यादा शहरी गरीब हैं और मुबंई देश का ऐसा महानगर है, जहां सामाजिक असमानता सबसे ज्यादा- लाख गुना तक है। मुंबई में सबसे ज्यादा अरबपति भी हैं और सबसे ज्यादा गरीबों की तादाद भी यहीं है। फिर, इस दौर में रोजगार का सवाल सबसे बड़ा हो चला है, क्योंकि आर्थिक सुधार के बीते एक दशक में तीस लाख से ज्यादा नौकरियां खत्म हो गयी हैं। मिलों से लेकर फैक्ट्रियां और छोटे उद्योग धंधे पूरी तरह खत्म हो गये। जिसका सीधा असर महाराष्ट्रीय लोगों पर पड़ा है। और संयोग से गैर-महाराष्ट्रीय इलाकों में भी कमोवेश आर्थिक परिस्थिति कुछ ऐसी ही बनी हुयी है। पलायन कर महानगरों को पनाह बनाना समूचे देश में मजदूर से लेकर बाबू तक की पहली प्राथमिकता है। और इसमें मुबंई अब भी सबसे अनुकूल है, क्योंकि भाषा और रोजगार के लिहाज से यह शहर हर तबके को अपने घेरे में जगह दे सकता है। इन परिस्थितियों के बीच मराठी मानुस का मुद्दा अगर राजनीतिक तौर पर उछलता है, तो शिवसेना और ठाकरे दोनों ही इसे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से जोड़, फायदा लेने से चूकेंगे नहीं। लेकिन, यहीं से संकट उस राजनीति का दौर शुरू होगा जो आर्थिक नीतियों तले देश के विकास का सपना अभी तक बेचती रही हैं। 1960 के बाद पहली बार ठाकरे इस मुद्दे पर आंदोलन चाहेंगे। और महाराष्ट्र की परिस्थितियां यह भी बताती हैं कि मराठी मानुस की जरूरत भी आंदोलन ही है, लेकिन उसे एक्शन में लाने के लिये अभी खासी राजनीति होनी बाकी है। इसीलिये पहली बार ठाकरे खान से लेकर गांधी तक के आगे लाचार हैं।
16 comments:
महानगर किसी भी प्रांत का नहीं हो सकता .. उसके विकास में सारे राज्यों की भूमिका होती है .. भूख , गरीबी , महंगाई के आगे धर्मवाद , जातिवाद या क्षेत्रवाद जैसा कोई मुद्दा आना ही नहीं चाहिए .. बहुत कम समय है , अब भी हम अपनी मानसिकता को बदल लें .. अन्यथा विदेशी ताकतों को आगे बढने से नहीं रोका जा सकेगा !!
ओह! कमाल कर दिया, बेहतरीन निष्कर्श और जानदार प्रस्तुति जिस पर सभी शोध और आंकड़े लेख को कही अधिक सजीव बना रहे है, इस तरह के वृतांत को तो टीवी रिर्पोट बनाकर पेश किया जा सकता है, आपका लेखन बेहद सशक्त है, पत्रकारिता की आडम्बरी भीड़ में कुछ सार्थक और नयापन ना सिर्फ आपकी शैली है बल्कि पत्रकारिकता के यर्थात को जिन्दा रखने की पहली जरूरत भी। मुम्बई, ठाकरेगर्दी पर यू तो बहुतायात लोग लिख रहे है, लेकिन ये एंगल कुछ अलग हैं। ऐसा ही लिखते रहेगें ऐसी उम्मीदों के साथ।
आपका लेख बहुत बढ़िया है। यह लेख अधिक से अधिक लोग पढ़ सकें इसलिए इसे बदले हुए शीर्षक के साथ अपने ब्लाग पर लगा रहा हूं। उम्मीद है आपकी सहमति होगी।
जब ठोस मुद्दे पास नहीं होते हैं तब नेताओं और समझदारों को ऐसे ही बुतेके मुद्दों से काम चलाना पड़ता है।
100 aane sach hai :)
हम गुजराती पूरी दुनिया में फ़ले हुए हे, दुनिया के कई क्षेत्रो में तो वहा की राजनीती पर बहुत प्रभाव हे गुजरातियो का. ये वास्तविकता हे और इसके ऊपर चद्दर रखकर क्या में ये कह सकता हु की गुजरात में पर-प्रान्तियो के लिए जगह नहीं हे? अगर में ये कह सकता हु तो पूरी दुनिया भी ये कह सकती हे की हमारे देश में पर-प्रान्तियो के लिए जगह नहीं हे, तो फिर ग्लोबल गुजराती की गुंजाईश कहासे आती? और अमेरिका-यूरोप ये कहे की तुम्हारे रस्मो रिवाज गुजरात में छोड़ कर आवो तो गुजराती अस्मिता वहा केसे महकती? दुनिया का हर एक इन्सान जहा भी जाता हे, अपना भावविश्व उसके साथ रहता हे. वो भावविश्व को उस इन्सान se chhudva le तो फिर वो तो jinda lash ho jayega... ye baat ~amachi mumbai~ ke nare lagane vale samje.
मुंबई ही क्यों? किसी भी राज्य को लीजिए... विकास की बयार तभी चलती है जब बाहर के लोग उस राज्य या शहर में जाते हैं। बाहरी लोग ही दूसरे स्थानों पर सर्वाधिक निवेश करते हैं। ये अपनी पूंजी, सोच, कर्मठता आदि से उसे समृद्ध बनाते हैं। जिन्हें अपना वर्तमान पता नहीं है वे कल की बात करते हैं। माफ कीजिएगा, पर नेताओं का चरित्र कभी नहीं सुधरने वाला। टीएन शेषण जब चुनाव आयुक्त थे तब उन्होंने इनके गे्रजुएट होने की अनिवार्यता पर एक चर्चा छेड़कर इनकी दुखती रग पर हाथ रखा था। जिस दिन ऐसा हुआ तालाब की गंदगी कुछ हद तक साफ हो सकेगी।
आपके इस लेख को औरों तक पहुंचाना चाहता हूं। उम्मीद है आप मंजूरी देंगे। एक जानकारीपरक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
सामना..!
नहीं ...यह तो है सच से सामना..!
और जब सच से सामना होता है तो भ्रम टूट जाते हैं.
..लोगों ने इतना मायाजाल फैला दिया है कि इसको मिटाने के लिए ऐसे और भी लेखों की आवश्यकता पड़ेगी.
...आभार.
आप के आलेख से साबित हो रहा है कि मुंबई मराठों की कभी नहीं रही, और यह सच है। मुंबई में मराठी जनसंख्या ही सर्वाधिक है, यह भी सही है। गरीबी और अमीरी की खाई बहुत गहरी है यह भी सही है। मुद्दा दरअसल यह खाई है जिस पर कोई बात नहीं करना चाहता। इस खाई को पाटना ही संकटों का एक मात्र स्थाई हल हो सकता है। वह लड़ाई बहुत बड़ी है। कबीर की लड़ाई की तरह। पर कौन अपना घर फूंकने को तैयार होगा। राजनीति तो औरों का घर फूँक कर अपना घर भरने का तमाशा बन चुकी है। ठाकरे भी यही कर रहे हैं।
A very informative and interesting article. It completely exposes the lies of thugs like Thackerays (both Mama and Bhanja) who hold Mumbai at ranson for nonsensical reasons. Keep on writing Sir. (www.canarytrap.in)
Lekh Mumbai ke bare me hai ya Mumbaikar ki asfalta ke baare me hai. Jis najariye ko lekar lekh ko aage badhaya gaya hai usase sahmat nahi huaa ja sakta.Aajadi ke itane dino baad bhi yadi aadiwasi pichade huye hai to iske piche aadiwasiyo ki apni asfalta hai? kyo log naksali bankar nirdoso ki hatya kar rahe hai. Kyo dalito ke sath sahanubhuti ya unke adhikaro ki baat karni chahiye, unka itihas me kya roll raha hai? Kyo n ham unki bhi asfalta bataye. Kyo mahilaye aaj bhi pichadi hai, kyo inke liye aarchan ki baat ki jaye ye bhi to asfal hi hui hai. Aaj bhi UP ke kisi MBA ke student se sawal kiya jaay ki usne Mayawati ko vote kyo diaa to uska jawab yahi hoga ki aik to wo hamari jati ki hai dusra aarchan to degi hi,phir vikas ho n ho. Sawal yahi hai ki log vyaktigat suvidhawo aur sahuliyto ko dekhte hai n ki Des ko, aur jo leadership unhe bha gaya uski taraf rukh kar lete hai. Bharat me to waise bhi log Netritwa ke bina hilte bhi nahi aur ye Bharat ke logo ki naisargik kamjori hai ki jati ,dharm aur chetr ke nam par hi sab kuch sabjhte bujhte hai phir sawal saflta ya asfalta ka kaha ata hai ya kisi ne yogdan diya ya nahi ye bhi mayne kaha rakhta hai. Yadi aapke najriye ko lekar chala jaye to sawal ye bhi uthega ki agar Angrej Bharat me na aaye hote to rail, telephone aur daak ki kabhi baat hi nahi ki ja sakti thi, to bataiye Bharat kiska jyada huaa?
sir namaskar,
mein jyada padhne likhne wala banda to nahi hoo lekin aapke aur ravish kumar ji ke blog ko aksar hi padne laga hoo pichle kuch dino se.
aapka aaj ka blog bahut hi umda aur samyanukool laga.mumbai ki poori history ek minute mein samast aavasyak tathyo ke sath meri to samaj mein aa chuki hai.(waise sir jo likha hai wo sab thik hai na? kyunki mein iska upyog karne wala hoo.)
bahut acchi lekh prashun ji....
Prasoon ji I absolutely agree with you.. but commenting on one of comment by Himmat bhai, Gujarat is not an exception of this approach, for eg There is project for rehabilitation of Gujarathi Lion to Palpur Kuno Sanctuary MP, Guajarth, Its in benefit of Asiatic Lion since they can be extinct if some natural calamity comes in Gir, Now Gujarath Govt is opposing this only because if other state will have lion then Gujarath's present identity of having lion will be no more. In my opinion this is very narrow view of Gujarathi Govt and they are also only thinking about their state and not entire country... same like Raj thankrey and shiv sena.
exelent..........
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