Sunday, July 1, 2012

एसपी की पत्रकारिता क्यों पीछे छूट गई एसपी को याद करते हुये


27 जून को को एसपी सिंह को याद किया गया। एसपी की मृत्यु 15 बरस पहले हुई। लेकिन एसपी को टेलीविजन के खाके में रखकर आज भी बेचा जा सकता है, यह अहसास पहली बार एसपी सिंह को याद किये गये कार्यक्रम को देखकर लगा। नोएडा के फिल्म सिटी के मारवाह स्टूडियो में हुये इस कार्यक्रम के निमंत्रण कार्ड ने प्रायोजक और पत्रकारो की लकीर को मिटाया। वरिष्ठ पत्रकारों की लाइन में ही बिल्डरों का नाम छपा देखकर लगा हर वह शख्स मुख्य अतिथि बनने की काबिलियत रखता है, जो बाजार के नाम पर कुछ आयोजकों को दे सकता है। एक जाने माने पत्रकार की याद में अब के नायक बने पत्रकारों के जरिये मीडिया के मौजूदा रुप को देखने के लिये एक मीडिया वेबसाइट की पहल वाकई अच्छी होगी। लेकिन बाजार के ओहदेदार लंपट लोगो की कतार मुख्य अतिथि बन जाये। पैसा देकर कार्ड में अपना नाम छपा ले। और बाजार-बाजार का ढिढोरा पीटते पत्रकारों को भी यह लगे कि यह तो आधुनिक चलन है, तो क्या कहेंगे? 

दरअसल, बाजार शब्द की परिभाषा पत्रकारिता करते हुये हो क्या यह तमीज चेहरे के ऊपर जा नहीं पा रही है। चेहरा लिये घूमते पत्रकारों को सिल्वर स्क्रीन के कलाकारों से लेकर मॉडलिग करने वालों की कतार में रखने का नया नजरिया ही खबर है। अब के नायक पत्रकारों को देखकर भविष्य में न्यूज चैनलों से जुड़ने वाले साथ में खड़े होकर तस्वीर खींचने या ऑटोग्राफ लेकर एक-दूसरे को ग्लैमर की जमीन पर खड़ा करने से नहीं हिचकते और खबरों को पेश करने के पीछे बाजार में बिकने की परिभाषा में खुद को ढालने से नहीं हिचकते। लेकिन एसपी सिंह ने तो कभी अपने 20 मिनय के बुलेटिन में विज्ञापनों की बाढ़ के बावजूद साढे चार मिनट से ज्यादा जगह नहीं दी। दस सेकेंड के विज्ञापन की दर को बढ़ाते बढ़ाते नब्बे हजार तक जरुर कर दिया। लेकिन अब तो उल्टा चलन है। विज्ञापन बटोरने की होड़ में 10 सेकेंड का विज्ञापन घटते घटते 10 हजार या उससे कम तक आ चुका है। 

यह राष्ट्रीय हिन्दी न्यूज चैनलो का ही सच है। और अगर अब के नायक चेहरे एसपी सिंह को याद करते करते बाजार का रोना या हंसना ही देख कर खबरों की बात करने लगे तो सुनने वालो के जेहन में जायेगा क्या। और ऐसी बहसो को सुन-देख कर जो ब्लॉग-फेसबुक या कहें सोशल मीडिया में लिखा जायेगा, वह भी इसी तरह सतही होगा। इसलिये जरा पलट कर सोचें 27 जून के कार्यक्रम के बारे में सोशल मीडिया में जो लिखा गया, उससे पढ़ने वालो को क्या लगा। एक कार्यक्रम और हो गया। अब के दौर के नायक चेहरों का ग्लैमर आसमान छू रहा है। पहली बार कई चेहरे एक साथ एक मंच पर जमा हुये तो आयोजन सफल हो गया। हो सकता है। लेकिन पत्रकारिता की साख कभी भी लोकप्रिय अंदाज,बाजार के ग्लैमर, बिकने-दिखने या फिर एसपी सरीखे पत्रकारिता के गुणगान से नहीं बढ़ सकती। मौजूदा दौर की पत्रकारिता को कठघरे में खड़ाकर जायज सवालो को उठाकर उसपर बहस कराने से कुछ आग जरुर फैल सकती है। असल में मैं सोचता रहा कि एसपी सिंह को याद करने वाले कार्यक्रम के बार में रिपोर्टिंग करते सोशल मीडिया में कहीं भी वह सवाल क्यों नहीं उठे, जिसे पहली बार मैंने उठते हुये देखा। सवाल चेहरों के भाषण का नहीं है। सवाल सुनने वालों के जेहन में उठते सवालों का है। मैंने तो पहली बार नायक चेहरों को धारदार सवालों के सामने पस्त होते देखा। क्या यह सच नहीं है कि अगर वाकई हर मीडिया संस्थान में भर्ती को लेकर कोई मापदंड बन जाये तो लायक छात्र पत्रकारिता करने की दिशा में सफल होंगे। क्या यह सच नहीं है कि इंटर्नशिप को लेकर हर संस्थान अगर गंभीर हो जाये तो इंटर्न छात्र-छात्रा अपनी उपयोगिता को साबित भी करेगा और जो बैक-डोर एन्ट्री किये हुये संस्थान के भीतर पत्रकार बने बैठे हैं,उन्हें भी अहसास होगा कि काम तो करना होगा। न्यूज चैनलो में जा कर पत्रकारिता करने का माद्दा रखने वालों को क्या बाजार के ग्लैमर में खुद को बेवकूफ बनाकर पेश होने की मजबूरी आ गई है। क्योंकि पत्रकारिता बिकती नहीं । या फिर जो बिके वही पत्रकारिता है। है ना कमाल। एसपी सिंह को याद करते हुये सुनने वाले छात्रों के सवाल ही अगर एसपी सिंह की याद दिला दें
तो सच की जमीन भी नायक चेहरों के जरीये नहीं बल्कि अपने आसरे बनाने होगी। किसी भी पत्रकार के साथ तस्वीर या ऑटोग्राफ का ग्लैमर खत्म करना होगा। खबरों की फेहरिस्त हमेशा नायक चेहरों को थमानी होगी, जिसे कवर करने का दवाब ऐसे ही कार्यक्रम में सार्वजनिक तौर पर बनाना होगा। सवाल-जवाब के लिये हर नायक चेहरे से वक्त तय कर ठोस मुद्दों का जवाब मांगना चाहिये। जिससे मौजूदा पत्रकारिता का विश्लेषण हो सके। और तस्वीर और चेहरों की रिपोर्टिंग से बचते हुये जो मुश्किल मौजूदा पत्राकरिता को लेकर उभरे,
उसके लिये रास्ता निकालने की दिशा में सोशल मीडिया से जुडे लेखकों को बहस चलानी चाहिये। और कार्यक्रम कमाई का जरीया हो तो बॉयकॉट करने की तमीज भी आनी चाहिये।

13 comments:

Ram N Kumar said...
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Ram N Kumar said...
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Mrityunjay said...

Punya Prasoon Ji!
In Journalists, I have high opinipn about Vinod Dua, you and Ravish kumar in Hindi Journalism - as a serious, thoughtful and affable journalists.

Most of the issues put up by you in the blog is very apt. But, at one point, I smelt the arrogance in you , when you tried to assume Builder as someone not fitting to the rank of chief guest. Even this contention of yours could have been acceptable to a liberal mind; but when you tried to typify a section of people as "LAMPAT" - I feel pity on myself whether I am a poor judge of the persons.
In friendly gesture, I just want to know- why this arrogance against enterpreneurs? I had been communist in thoughts in childhood; turned socialist in adulthood ; and, started firmly believing in Capitalism in my later stage. I do not want to go in detail; it will be too lengthy a discussion.
I appreciate your positive arrogance, but negative one will make you go down in my eyes ( though my opinion is immaterial for you; as your opinion may be immaterial for me). If not the general masses, but at least, the intellectuals could be more responsible and careful with the screening of people rather than typifying or generalisation; it would give a clear direction to the society.
I need not elaborate the things for a quick and sharp person like you. We may have dialogue in future if we wish for.

विनीत कुमार said...
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विनीत कुमार said...

पुण्य प्रसूनजी, आपको मीडिया के उन लफ्फाजों का विरोध करना था न !- पोस्ट की लिंक- http://www.hunkaar.com/2012/07/blog-post.html

Richa Sakalley said...

सर...ऐसा ही बहुत कुछ आपसे उस दिन मीडिया खबर के कार्यक्रम में सुनना चाहती थी...'एस पी के बाद टेलीविजन' विषय और वक्ताओं में आपका नाम देखकर ..नाइट शिफ्ट में सोना छोड़कर आपको सुनना चुना था...लेकिन निराशा हुई...एक तो आप देरी से आए ऊपर से कुछ ऐसा बताया नहीं कुछ ऐसे सवाल उठाए नहीं जिससे बाजार और एसपी का गुणगान एक साथ करने वाले विरोधाभासी माहौल में सुकून होता और आपके तेवरों में हमें भी रंगने का मौका मिलता...सवाल कई थे सामने लेकिन उस माहौल में आपके तेवर और आपके सवाल होते तो हमे भी मजबूती मिलती...दरअसल मीडिया के इन तथाकथित नायकों के सामने सवाल उठाने की बात आती है तो सब शायद आपकी तरफ इसलिए देखते हैं कि आप बराबरी से उनका मुकाबला कर लेते हैं...वरना वहां सवालों का मजाक उड़ते सबने देखा था..
ऋचा साकल्ले, तेज़ (मैं बेनज़ीर...ये आपको याद दिलाने के लिए लिखा :-) )

Richa Sakalley said...

सर...ऐसा ही बहुत कुछ आपसे उस दिन मीडिया खबर के कार्यक्रम में सुनना चाहती थी...'एस पी के बाद टेलीविजन' विषय और वक्ताओं में आपका नाम देखकर ..नाइट शिफ्ट में सोना छोड़कर आपको सुनना चुना था...लेकिन निराशा हुई...एक तो आप देरी से आए ऊपर से कुछ ऐसा बताया नहीं कुछ ऐसे सवाल उठाए नहीं जिससे बाजार और एसपी का गुणगान एक साथ करने वाले विरोधाभासी माहौल में सुकून होता और आपके तेवरों में हमें भी रंगने का मौका मिलता...सवाल कई थे सामने लेकिन उस माहौल में आपके तेवर और आपके सवाल होते तो हमे भी मजबूती मिलती...दरअसल मीडिया के इन तथाकथित नायकों के सामने सवाल उठाने की बात आती है तो सब शायद आपकी तरफ इसलिए देखते हैं कि आप बराबरी से उनका मुकाबला कर लेते हैं...वरना वहां सवालों का मजाक उड़ते सबने देखा था..
ऋचा साकल्ले, तेज़ (मैं बेनज़ीर...ये आपको याद दिलाने के लिए लिखा :-) )

पुष्कर पुष्प said...

पुण्य प्रसून बाजेपयी जी बताएँगे की वहां लफ्फाजी कौन कर रहा था?

पुण्य प्रसून बाजेपयी बड़े पत्रकार हैं लेकिन उनमें बड़प्पन नाम की कोई चीज नहीं. कुछ गुरूर भी है. शायद यह गुरुर सहारा प्रणाम करने से आया होगा ! 27 जून को उनका असली व्यक्तित्व सामने आया. एस.पी सिंह स्मृति समारोह में वक्ता के तौर पर उन्हें बेहद सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया गया था. उन्होंने निमंत्रण स्वीकार किया और आने का वायदा किया. एस.एम.एस और फोन करके उन्हें कार्यक्रम के बारे में याद भी दिलाते रहे.
लेकिन 27 जून के कार्यक्रम में वे बहुत देर से पहुंचें. ख़ैर ऐसा कई बार हो जाता है. लेकिन जब तक वे नहीं आए उस दौरान उन्हें कार्यक्रम के बारे में लगातार अपडेट किया जाता रहा कि अब कितने वक्ता बचे हैं आदि – आदि. कार्यक्रम खत्म होने के कुछ ही देर पहले वे पहुंचे. उन्हें सम्मान से मंच पर बैठाया गया. फिर उन्होंने अपना भाषण दिया. आमंत्रण कार्ड और कार्यक्रम को लेकर जो भी समस्या उन्हें थी उसपर अपनी बात रखी. कुछ वाजिब बातें भी कहीं. फिर सवाल - जवाब का सत्र शुरू हुआ. यहाँ तक सब ठीक था. लेकिन थोड़ी देर बाद अचानक न जाने क्या हुआ कि पुण्य प्रसून जी बिना किसी को बोले ऐसे उठकर चल पड़े जैसे और किसी का वहां कोई अस्तित्व ही नहीं है. मॉडरेटर वर्तिका नंदा तक को कुछ नहीं कहा. चुकी पुण्य प्रसून जी वक्ता थे , उन्हें सम्मान देना मेरा काम था. इसी वजह से उन्हें इस तरह उठते जाते देखकर पूछा कि क्या आप जा रहे हैं? फिर जो हुआ , उससे मैं स्तब्ध रह गया. उन्होंने बड़ी रुखाई से (यदि वे इस कद के पत्रकार नहीं होते तो मैं ‘रुखाई’ की जगह ‘बदतमीजी’ शब्द का इस्तेमाल करता) से जवाब दिया - "हां , तो क्या यहाँ बैठकर लफ्फाजी करें. काम - धंधा नहीं करना है."
फिर वे चले गए और मैं कुछ पल वही स्तब्ध खड़ा रहा. पुण्य प्रसून नाम के एक महान पत्रकार का आईना टूट चुका था. आगे जाकर उन्होंने पत्रकारिता के उन छात्रों को भी झिडक दिया जो उनके साथ तस्वीर खिंचवाना चाहते थे. उनके व्यक्तित्व का अनदेखा रूप सबके सामने था. यह छवि उनकी स्क्रीन छवि से बिलकुल अलग थी.
पुण्य प्रसून जी जिनका मैं जबरदस्त प्रशंसक रहा हूँ उनसे बड़ी शिद्दत से एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि यदि आपको स्वर्गीय एस.पी.सिंह की याद में रखी गयी संगोष्ठी लफ्फाजी लग रही थी तो ये बात आपने मंच से क्यों नहीं कही? आप बोलने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र थे. शैलेश जी, राहुल देव, अल्का सक्सेना, आशुतोष और दीपक चौरसिया को क्यों नहीं कहा कि यहाँ लफ्फाजी हो रही है और आप लोग लफ्फाजी में शामिल हैं. यहाँ पुण्य प्रसून बाजेपयी नाम के खांटी पत्रकार की जुबान पर किस कॉरपोरेट ने ताला लगा दिया था? आपने उन छात्रों के सवालों का जवाब क्यों नहीं दिया जिनका सवाल किसी खास वक्ता से नहीं बल्कि सामूहिक रूप से तमाम वक्ताओं से था. वहां तो आप चुप्पी साध गए और न जाने किस बात की सारी खीज मुझ जैसे अदने पत्रकार और तुच्छ इंसान पर निकाली.
माननीय पुण्य प्रसून बाजेपयी जी स्वर्गीय एस.पी.सिंह को हम जैसे लोगों ने नहीं देखा है. लेकिन जितना समझ पाया हूँ कि यदि आपकी जगह एस.पी होते तो मंच से चाहे वे कुछ भी कहते, कार्यक्रम की धज्जियाँ उड़ाते, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर अपने से इतने कनिष्ठ पत्रकार के साथ ऐसा दुर्व्यवहार नहीं करते, जैसा आपने मेरे साथ किया.

दरअसल पुण्य प्रसून जी ने उस मंच का तिरस्कार करने की कोशिश की जहाँ एस.पी के बहाने टेलीविजन विमर्श चल रहा था. उस मंच पर कोई कॉरपोरेट, कोई बिल्डर या पत्रकारिता से इतर एक भी शख्स नहीं था और न ही बातचीत में किसी बाहरी का कोई हस्तक्षेप था. यदि पुण्य प्रसून जी कमर वहीद नकवी, राहुल देव, शैलेश जी, अल्का सक्सेना, दीपक चौरसिया और आशुतोष को पत्रकार समझते हैं तो उस हिसाब से उस मंच पर सारे पत्रकार ही आसीन थे. गैर पत्रकार कोई नहीं था. तो सवाल उठता है कि वहां लफ्फाजी कौन कर रहा था? क्या पुण्य प्रसून बाजेपयी जी बताएँगे की वहां लफ्फाजी कौन कर रहा था? (पुष्कर पुष्प, pushkar19@gmail.com, Mobile - 9999177575)

Rajesh said...

This was not expected from a journalist like Punya Prasoon. He should have taken a Positive approach rather arrogance

पुष्कर पुष्प said...

पुण्य प्रसून बाजपेयी जी गौर फरमाएं. आपके लिए एक और निमंत्रण कार्ड. 11 जुलाई को उदयन शर्मा ट्रस्ट द्वारा हरेक साल की तरह इस साल भी एक परिचर्चा का आयोजन किया जा रहा. पिछले साल पुण्य प्रसून जी भी वक्ता के रूप में शामिल हुए थे और ओजस्वी भाषण दिया था. इसमें सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी मुख्य अतिथि थी. इस बार अखिल भारतीय कॉंग्रेस कमिटी के महासचिव श्री जनार्दन द्विवेदी मुख्य अतिथि हैं और उनका नाम आमंत्रण कार्ड में सबसे ऊपर है. आशा है एस.पी सिंह स्मृति समारोह में आपने कार्ड को लेकर जैसी आपत्ति दर्ज करवायी , ठीक उसी तरह पत्रकारों की जमात में नेताओं की इस पंगत पर भी अपनी आपत्ति दर्ज करेंगे और लेख लिखेंगे. एस.पी सिंह स्मृति समारोह में तो गेस्ट लिस्ट में कॉरपोरेट जगत के लोगों के नाम थे वो भी अलग केटेगरी में . लेकिन यहाँ तो नेताजी को ही मुख्य वक्ता बनाया गया है. क्या यहाँ भी लेन - देन का कोई मामला है? वैसे गौर करने लायक तथ्य है कि हर साल इसपर परिचर्चा में कोई न कोई कांग्रेसी नेता जरूर होता है. लेकिन इसपर पुण्य प्रसून जी ने कभी कुछ नहीं लिखा. अब इस बार उनकी प्रतिक्रिया का इंतजार है. यह देखना भी दिलचस्प होगा कि यह हम जैसे युवाओं को ही सारी नैतिकता सिखाते हैं या फिर ......................

पुष्कर पुष्प said...

पुण्य प्रसून बाजपेयी जी से कुछ बातों को लेकर मेरी असहमति जगजाहिर है. लेकिन कुछ लोग इस असहमति को अलग तरीके से देखने लगे हैं. पुण्य प्रसून जी का मैं पहले भी सम्मान करता था और अब भी करता हूँ. लेकिन असहमति दर्ज कराने का अधिकार मेरा भी है. एस.पी.सिंह स्मृति समारोह, 2012 में वे हमलोगों के आमंत्रण पर वक्ता के रूप में आए और अपने वक्तव्य में कुछ जरूरी सवाल उठाने के साथ - साथ समारोह की कुछ खामियां को भी गिनाया. बहरहाल इसे हमने चुनौती के रूप में लिया है और कोशिश होगी कि अगले साल और बेहतर तरीके से एस.पी.सिंह को याद किया जाए और उसमें एक बार फिर से पुण्य प्रसून जी आयें और अपनी बात रखें. आशा है अगली बार जब हम उन्हें वक्ता के रूप में आमंत्रित करेंगे तो वे जरूर आयेंगे.

पुष्कर पुष्प said...

दो साल पहले एस.पी.सिंह पर हुए कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय. यह कार्यक्रम प्रेस क्लब में हुआ था. बेहद सादगीपूर्ण ढंग से. लेकिन इसकी कोई चर्चा नहीं हुई. यह बात अलग है कि रामबहादुर राय बेहद खुश हुए और मेरी पीठ थपथपाई. उन्होंने मेरा मोबाइल नंबर भी लिया. अगला कार्यक्रम इंडिया हैबिटेट सेंटर में. यह कार्यक्रम भी बेहद सादगीपूर्ण ढंग से. इंडिया हैबिटेट सेंटर में बमुश्किल हॉल बुक करवा पाए थे. साधनों के अभाव में एक पोस्टर - बैनर तक नहीं बन पाया था. फिर भी किसी से (कोर टीम को छोड़कर) मदद नहीं मांगी गयी. तकरीबन चार - पांच घंटे तक चले सेमिनार में लोगों को ठीक से पानी भी नहीं पिलाया जा सका. टेलीविजन इंडस्ट्री से कोई नहीं आया. कहीं कोई खास चर्चा नहीं हुई. किसी बड़े और सरोकारी पत्रकार ने एक ट्वीट तक नहीं किया. साल 2012 में एस.पी पर कार्यक्रम. कार्यक्रम कराने के हालात नहीं. ऊपर से लोगों की सलाह कि एस.पी के करीबी लोगों से एस.पी को याद करने के नाम पर कुछ आर्थिक मदद मांग लो, ताकि एस.पी पर हो रही सालाना संगोष्ठी संपन्न हो सके. लेकिन ऐसी भिखमंगी से बेहतर हमलोगों ने कार्यक्रम न करना ठीक समझा. बाद में जैसे - तैसे मारवाह स्टूडियो मिल गया और एक-दो स्पोंसर्ड. इस बार कार्यक्रम की खूब चर्चा हुई. सारे लोग आए. बड़े और सरोकारी पत्रकारों ने लेख तक लिख मारा. सोशल मीडिया में चर्चा का विषय बन गया है और एस.पी स्मृति समारोह सुर्ख़ियों में छा गया. अब इस स्टोरी से क्या शिक्षा मिली? कोई बताएगा.

पुष्कर पुष्प said...

पुण्य प्रसून बाजपेयी जी का सरोकार और पत्रकारिता पर लिखा यह लेख एक शुद्ध पीआर और कॉरपोरेट वेबसाइट पर देखकर मन बेचैन हो उठा है. इस वेबसाईट पर कॉरपोरेट की तेल मालिश साल में 365 दिन होती है. अब इस कॉरपोरेट की भीड़ में पुण्य प्रसून बाजपेयी को देखकर मन बेचैन न हो तो क्या हो?