सीन-एक, लालू जी हम सेल्फी लेना चाहते है । ले...लो । हम मिसयूज नहीं करेंगे । नहीं... तुम मिसयूज कर भी सकती हो । सीन-दो, अरे भाई यह कौन सा जमाना है । मोबाइल की घंटी बजी नहीं कि लडका-लडकी कान में लगाकर एक किनारे चल दिये । क्या बात कर रहे हैं जो सबके बीच बैठकर नहीं हो सकती । और टुकर-टुकर मोबाइल में ही दुनो नजर घुसाकर कुछ देखते रहते हैं।सीन-तीन, लालू जी मजा आ गया । बहुते हंसाये आप । सब बात खरी खरी बोले । तो कुछ बदला है क्या । हम तो मंडल के दौर में बिहार को बदलने ही ना निकले थे । लेकिन सब बोलने लगा जंगल राज । रोटी उलट दिये तो सबको लगने लगा जंगल राज ।यह तीनो सीन पटना के पांच सितारा होटल मोर्या के हैं। पहला सीन होटल मौर्या की सीढियों को चढ़ते हुये लालू यादव का संवाद पटना वूमेन्स कालेज की उन छात्राओं से हैं जो एक न्यूज चैनल के राजनीतिक चर्चा को सुनने के लिये पहुंची थीं। दूसरा सीन राजनीतिक चर्चा में शामिल होकर लालू के जबाब देने का है। और तीसरा सीन चर्चा के बाद बाहर निकलते वक्त सुनने वालो से लालू के संवाद का है । कोई भी कह सकता है कि लालू यादव इस हुनर में माहिर है कि कब कहां किससे कैसा संवाद बनाना है उन्हें पता है । और इस सच को भी लालू बाखूबी समझते है कि मंडल के दायरे से बाहर निकलते ही उनकी महत्ता खत्म हो जायेगी । सीधे कहे तो जिस मंडल दो का रास्ता लालू बिहार चुनाव में बनाने के लिये बैचेन हैं अगर वह दांव नहीं चला तो लालू यादव की राजनीति का पटाक्षेप 2015 में ही हो जायेगा । लेकिन लालू के इसी खांचे में वहीं भाजपा फंसती जा रही है जो खुली जुबान से विकास का तिलक तो नरेन्द्र मोदी के माथे पर लगाकर मंडल को ढाई दशक पहले का सच बताकर पल्ला झाड़ना चाह रही है । लेकिन दबी जुबान में मंडल पार्ट टू के रास्ते अपनी सोशल इंजीनियरिंग का मुल्लमा चढाकर लालू के काट के लिये बिहार को उसी कठघरे में ढकेल रही है जहा सियासी विकल्प नहीं जातीय गणित ही सियासती बिसात का सच हो जाये । असर इसी का है कि बिहार चुनाव के केन्द्र में लालू आ खड़े हुये हैं।
चाहे नीतिश हो या नरेन्द्र मोदी दोनो ही लालू से ही टकराते हुये दिखायी दे रहे हैं। आलम यह हो चला है कि विकास शब्द 2010 के चुनाव से भी छोटा पड़ गया है और नीतिश कुमार जिस विकास का जिक्र बिहार को लेकर 2005 से करते रहे वह विकास अब लालू के मंडल पार्ट टू का हिस्सा बन रहा है और नीतिश चाहे अनचाहे नरेन्द्र मोदी के चकाचौंध वाले विकास से टकरा रहे हैं। इसलिये पहली बार बिहार चुनाव में साइकिल पर सवार लड़कियों के साथ वाई-फाई का जिक्र भी हो रहा है और प्राथमिक स्कूल के साथ आईआईटी का जिक्र भी हो रहा है । और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से लेकर एम्स का जिक्र भी हो रहा है । यानी एक तरफ न्यूनतम के लिये संघर्ष करता बिहार का बहुसंख्यक तबका । तो दूसरी तरफ विकास को सुविधाओं की पोटली में समेटने की चाहत रखता वह युवा तबका जो इस बार चुनावी बिसात पर खड़े वजीर को प्यादा तो प्यादे को वजीर बना सकता है । लेकिन चुनाव की शुरुआत ही जिस विकास के जिस नकारात्मक मूड के साथ हुई है उसमें पहली बार लगने लगा है कि बिहार को बदलने का ख्वाब लिये नरेन्द्र मोदी और अमित शाह भी 8 नवंबर के बाद खुद में बिहारी तत्व जरुर खोजेंगे । क्योंकि जिस राह पर पासवान-मांझी-कुशवाहा की तिकड़ी है । उसी राह पर नीतिश से अलग हुये बीजेपी के अगडी जाति और ओबीसी के नेता हैं । और यह राह लालू यादव ने नीतीश के साथ मिलकर बनायी है। जो कि विकास को सामाजिक न्याय से आगे देखने नहीं देगी। मंडल पार्ट-टू के जरीये कही नीतीश को लालू के कंधे पर टिकायेगी तो कही बीजेपी को पासवान और मांझी के आसरे के बिना जीत मुश्किल लगेगी । यानी जो यह मान कर चल रहे है कि पहली बार छह करोड़ अस्सी लाख वोटरो में से तीन करोड वोटर ऐसे है, जिनका जन्म भी जेपी आंदोलन के बाद हुआ । वह बिहार की तकदीर बदल सकते है या फिर यह मान कर चल रहे है कि इनमे से दो करोड़ वोटर ऐसे है जिनहोने समूचे बिहार के हालात को मंडल की सियासत तले रेंगते भी देखा और सियासत से सटे बगैर घर की रोजी रोटी के लाले पड़ते हुये भी देखा समझा। वह बिहार को बीते ढाई दशको की सियासत से इस चुनाव में निकाल लेंगें तो निरासा ही हाथ लगने वाली है । क्योंकि 1989 के भागलपुर दंगों के बाद सत्ता में आये लालू यादव के दौर में दो दर्जन से ज्यादा खूनी जातीय संघर्ष की यादे एक बार फिर सतह पर आ गयी है । और उम्मीदवार-दर-उम्मीदवार हर विधानसभा क्षैत्र में जातीय आधार पर ही यह आकलन होने लगा है कि जब खूनी संघर्ष हो रहा था तब उम्मीदवार या उसकी जाति किस तरफ खडी थी । दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता यह सोच कर खुश हो सकते है भागलपुर दंगो में तो दोषी यादव ही थे । तो से मोहभंग तय है।या फिर जातियों के संघर्ष में बीजेपी की भूमिका तो रही नहीं तो चुनावी लाभ विक्लप के तौर पर उनके साथ जुड़ सकता है । लेकिन बिहार के सामाजिक-आर्थिक दायरे में अगर भागलपुर दंगो को टेस्ट केस बनाये तो मुसलमान यादव की पीठ पर सवार होकर ही वोट डालता नजर आयेगा । मुसलमान आर्थिक तौर पर बेहद कमजोर है और यादव सामाजिक-आर्थिक तौर पर अपनी बस्ती में एक ताकत है । बिहार के समूचे दियारा इलाके में यादव-मुसलमानों की बस्तियां कमोवेश सटी हुई ही है । दियारा इलाके में यादव अभी भी घोड़े रखते है । और शहरो में रोजी रोटी के लिये मुसलमान यादवों के घोड़ लेकर निकलते है । इसलिये चुनावी शब्दावली में एमवाय यानी मुसलमान-यादव की जोडी सामाजिक आर्थिक तौर पर टमटम कहलाती है। घोडा यादव का बग्गी या लकडी की गाडी मुसलमान का । और चुनाव में इस टमटम को कौन अलग कर पायेगा या उनके पास जीने का जब कोई विक्लप ही नहीं है तो फिर चुनावी समीकरण अलग कैसे होंगे यह पहला सवाल है । दूसरा सवाल लालू-नीतीश की जोडी को लेकर है । चूंकि नीतिश ने जितने हमले बीते दस बरस में लालू पर किये और लालू ने भी बिहार में अपना आस्तितिव बरकरार रखने के लिये जितने हमले नीतिश पर निजी तौर पर किये वैसे में इस चुनाव में जब दोनो साथ है तो जातीय आधार की कश्मकश गांव-पंचायत स्तर पर कैसे खत्म होगी या फिर बीते दस बरस में जीने का जो अंदाज लालू-नीतीश के जातीय समीकरण की वजह से बना रहा उसमें झटके में बदलाव कैसे आ जायेगा । सवाल यह भी है । बीजेपी के लिये यह हालात लाभदायक हो सकते है क्योंकि नीतिश जिस दौर में लालू के खिलाफ खड़े थे उस दौर में नीतिश के साथ बीजेपी थी । लेकिन बीजेपी की मुश्किल यह है कि जब वह नीतिश के साथ थी तो वह पासवान,मांझी,कुशवाहा सरीखे सोशल इंजीनियरिंग से दूर थी । यानी नीतीश का विरोध इस तिकडी के आसरे बीजेपी कर नही सकती । क्योकि ऐसा करते ही वह लालू के मंडल पार्ट –टू का हिस्सा बन जायेगी । फिर मंडल का सच आरक्षण से ही जुड़ा और बीजेपी के साथ मांझी पासवान या कुशवाहा का सच यही है कि यह तिकडी आरक्षण के हक में रही । तीनों ही कर्पूरी ठाकुर को आदर्श नेता मानते रहे । ऐसे में बीजेपी की तीसरी मुश्किल आरक्षण को लेकर है। क्योंकि कर्पूरी ठाकुर ने जब 26 फिसदी आरक्षण का एलान किया तो उस वक्त जनता पार्टी से जुडे बीजेपी के नेताओं ने विरोध करते हुये नारे भी लगाये, “आरक्षण कहां से आई, कर्पूर् की मां बिहाई “ ।
बिहार का सच भी यही है कि आरक्षण शब्द जिन्दगी से जुड़ा है । यानी मंडल की भूमिका और कमंडल की चुनावी दस्तक के बीच विकास से कही ज्यादा तरजीह उन सवालों को हल करने की देनी होगी जो पारंपरिक तौर पर जातियों की रोजी रोटी से जुड़े रहे । बुनकर खत्म हुये तो वह शहरों में मजदूरी करने से लेकर ईंट भट्टे में मिट्टी निकालते या ईंट ढोते ही नजर आने लगे । खेत मजदूरी कम हुई तो गांव के गांव खाली हुये और पलायन जिला हेडक्वार्टर से होते हुये पटना । और नीतिश के दौर में दिल्ली—मुबई का रास्ता ही हर किसी ने पकड़ा । शिक्षा संस्थानों का स्तर गिरा, अस्पताल बीमार हो गये । रोजगार घूसऔर कालेधन को बढ़ाने-सहेजने के लिये धंधों से ही निकला । तो जातियों के घालमेल ने इस सच से भी वाकिफ युवा पीढ़ी को कराया कि रास्ता दिल्ली होकर जाता है ना कि दिल्ली के पटना पहुंचने से रास्ता निकलेगा। यानी मंडल पार्ट-टू से इतर सोचने वाली राजनीति के सामने सबसे बडी मुश्किल यह है कि बीते 25 बरस में हर बिहारी नेता की भागेदारी कमोवेश मंडल से निकले अराजक सामाजिक न्याय के साथ खडे होने की ही रही । यानी विरोध के स्वर सुशीलमोदी , अश्विनी चौबे और नंदकिशोर यादव के भी नहीं निकले। नीतिश ने लालू का विरोध किया लेकिन महादलित का कार्ड नीतिश ने ही खेला । पसमांदा प्रयोग लालू से होते हुये नीतिश तक ही पहुंचा । और इस दौर नीतिश के साथ बीजेपी बराबर खडी रही । इसलिये बीजेपी बिहार के चुनाव में कही अलग दिखायी देती नहीं है । हां, मोदी और अमित शाह बिहार के नहीं है लेकिन सवाल है कि दोनो ही बिहार चुनाव तो लड़ेगें नहीं । और बिहार के बाहर से पहली इन्ट्री औवैसी की भी हो रही है । तो क्या बीते 25 बरस से कमोवेश हर उम्र के वोटरो ने जब बिहार के नेताओ की कतार में कोई बदलाव देखी ही नहीं । चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल के हो । किसी राजनीतिक विकल्प की कोई धुरी बनी ही नहीं । तो झटके में दिल्ली की सोच के मुताबिक बिहार चुनाव इस बार बदल जायेगा ऐसा हो नहीं सकता । बदलेगा सिर्फ इतना कि पहली बार वोट पाने से ज्यादा वोट काट कर जितने की सोच राजनीतिक दलो में गहरा रही है । नीतिश अपने कार्यकाल का जबाब देने के बदले प्रदानमंत्री मोदी के सोलह महीने की सत्ता का जबाब मांग कर हकीकत से बचना चाहेगें । तो बीजेपी नीतिश को हराने के लिये लालू को घेर रही है जिससे नीतिश पर चोट हो । यानी बीजेपी गठबंधन में हर के निशाने पर लालू यादव ही है । क्योकि बीते दस बरस की नीतिश की सत्ता का सच यह भी है कि नीतिश ने कभी अपनी कमजोरी या अपने काम करने के तरीके में किसी की दखल्दाजी बर्दाश्त नहीं की । और जिसने भी नीतिश का विरोध किया या बिहार की बदहाली का जिक्र किया उसे नीतिश ने लालू यादव के दौर का जिक्र कर डराया । तो सवाल यह भी है कि जब बीते दस बरस की सत्ता ने ही लालू के जंगलराज का जिक्र बार बार किया । इसकी कुछ बानगी देखे, “हमने सबको जोड़ा । स्त्री हो या पुरुष । एक सूत्र में जोड़कर हम हम बिहार विकास करने के लिये काम कर रहे है । ये एक धारा है । दूसरी धारा है जो आराम फरमाने वाली है । कहते है कि हम बिहार को शैम्पू लगाकर चमका देगें । 15 साल सत्ता में थे तो चादर तान कर सोये थे । क्या घौंस पट्टी थी । अब वैसे ही लालटेन वाले लोग छटपट छटपट कर रहे है । अब दिन में ही लालटेन लेकर घूम रहे हैं। “जाहिर है ऐसे बहुततेरे बयान बीते दस बरस का सच है जो दोनो तरफ से दिये गये । लेकिन बिहार की चुनावी राजनीति तीनसौ साठ डिग्री में घूमकर फिर वहीं आ खडी हुई है तो समझना बिहार के उस वोटर को होगा जो बीते ढाई दशक से अपने घर से ही पलायन लगातार देख रहा है और बिहार छोडने के लिये पढाई भी कर रहा है और मजदूरी के रास्ते निकालने के लिये दिल्ली-मुबंई भी देख रहा है । इसलिये बिहार का चुनाव नेताओ के लिये चाहे नया ना हो लेकिन बिहार के वोटरो के लिये कैसे नया है और मिजाज कैसे बदला है । इसके लिये दुबारा लौटिये सीन नंबर एक , दो और तीन पर । सीन एक – हम सेल्फी का मिसयूज नहीं करेगें । कर भी सकती हो । और सेल्फी लेने के बाद वूमेन्स कालेज की लडकी कहती है । मिसयूज तो बिहार का राजनेताओ ने किया है लालूजी । सीन दो, मोबाइल पर पता नहीं क्या देखता रहता है । ...न तभी सामने बैठे बेटे तेजस्वी पर नजर पड़ती है। जो मोबाइल में ही मशगूल था। तो झटके में लालू यादव कहते है , नहीं वाई फाई भी जरुरी है । नीतिश ठीक कहते है । सीन तीन, ...रोटी उलट दिये तो सब बोला जंगल राज । लेकिन लालू जी बिहार तो और बदहाल ही हुआ है । तो सत्ता में हम नहीं न थे । तो क्या इस बार आप सत्ता में होगें । नीतिश सीएम नहीं बनेंगे । अरे बनेंगे वहीं लेकिन हम साथ है ना । तो हमारा भी तो काफी सहयोग होगा । हमारे बेटा प्रमुख भूमिका में रहेगा । समझे ।
दरअसल बिहार चुनाव की खासियत यही हो चली है कि बिहार में जनादेश क्या होने वाला है यह हर बिहारी समझ रहा है । और जो समझ नहीं पा रहे है वह वही नेता है जो कल तक बिहारी होकर सोचते समझते रहे लेकिन आज बाहरी होकर बिहार को देख-समझ रहे हैं। क्योंकि बीते ढाई दशक का सच यही है कि कमोवेश हर नेता को पता था कि उसका होगा क्या । कौन सी जाति उसके साथ खड़ी होगी या कौन सा जातीय समीकरण उसे हरा या जिता सकता है । तो आंख बंद कर बिहार में लालू ने सत्ता चलायी । नीतिश ने आंखें बंद कर समाजिक समीकरणो को बीजेपी के साथ मिलकर दुहा । बीजेपी ने कोई मशक्कत ना तो सत्ता चलाने में ना ही नीतियो को बनाने या लागू करने में भूमिका निभायी । पासवान और कुशवाहा का तो एक विधायक तक नहीं है ।मांझी के साथ जो विधायक है वह नीतीश-बीजेपी गठबंधन की जीत के प्रतीक है । यानी पहली बार नेताओ ने बिहार चुनाव को लेकर अपनी आंखें खोली है तो मंडल के दौर के लालू का जंगल राज कही ज्यादा बड़ा होकर सामने आ खड़े हुआ है ।
Sunday, September 27, 2015
क्यों पच्चीस बरस बाद भी बिहार चुनाव की धुरी लालू ही हैं !
Posted by Punya Prasun Bajpai at 1:08 PM
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4 comments:
फरवरी में दिल्ली चुनाव के वक़्त पता चला था की लड़ाई भाजपा बनाम केजरू नहीं बल्कि भाजपा बनाम लुटियन्स का मीडिया+केजरू+ओवैसी है। और बिहार में भी कमोवेश वही किस्सा है, सुना है लुटियन्स के खबरची दलाल इस बात से नाराज़ हैं की मोदी सरकार में उनको मनमोहन की तरह प्रधानमंत्री के साथ उनके जहाज़ में मुफ़्त विदेश यात्रा, मुफ़्त का ख़ाना, शराब आदि नहीं मिल रहा है और सत्ता के गलियारे में उनकी पैठ भी ख़त्म हो गयी है। अब आपका ये लेख ही देख लो, और आप-तक की बिहार चुनाव कवरेज भी। लालू मसीहा की तरह पेश किये जा रहे हैं, वाह...मेरा भारत महान, 100 में से 99 बेईमान।
@joshim27 main dekh raha hn ki aap bajpai g ke ar bolg ke niche bakwas likhte ho.....kitne paise milte hain aapko gaaliyan dene ke???
@joshim27 main dekh raha hn ki aap bajpai g ke ar bolg ke niche bakwas likhte ho.....kitne paise milte hain aapko gaaliyan dene ke???
लालू के 15 साल वो 15 बेशकीमती बिहार के साल उसकी पुनरावृति सोच के ही मन व्याकुल हो जाता है। अपहरण ,हत्या ,लूट, डकैती, छिनतई ,रंगदारी ,सरेआम गुंडागर्दी ,प्रशासन की बेबसी एक जाति विशेष का आतंक और उससे बढ़कर "बिहारी" पहचान जो अब भी घृणा सूचक शब्द बना हुआ है और शायद रहेगा और क्या कहूँ लिस्ट लम्बी है।इसकी चर्चा को किसी से कोई मतलब नहीं है। इसकी पीड़ा केवल बिहारी ही समझ सकता है। सबको बस अपनी ढपली अपना राग की चिंता है।
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