Tuesday, January 29, 2019

जिन्हे जार्ज ने खडा किया उन्होने ही जार्ज को धोखा दिया....

तारिख 2 अप्रेल 2009 । नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान का साथ छोड़कर आये
गुलाम रसूल बलियावी का हाथ आपने हाथ में लेकर जैसे ही उन्हें जनतादल
यूनाईटेड में शामिल करने का ऐलान किया वैसे ही दीवार पर टंगे तीन बोर्ड
में से एक नीचे आ गिरा। गिरे बोर्ड में तीर के निशान के साथ जनतादल
यूनाइटेड लिखा था। बाकी दो बोर्ड दीवार पर ही टंगे थे, जिसमें बांयी तरफ
के बोर्ड में शरद यादव की तस्वीर थी तो दांयी तरफ वाले में नीतीश कुमार
की तस्वीर थी। जैसे ही एक कार्यकर्ता ने गिरे हुये बोर्ड को उठाकर शरद
यादव और नीतीश कुमार के बीच दुबारा टांगा, वैसे ही कैमरापर्सन के हुजूम
की हरकत से वह बोर्ड एकबार फिर गिर गया। इस बार उस बोर्ड को टांगने की
जल्दबाजी किसी कार्यकर्ता ने नहीं दिखायी। पता चला इस बोर्ड को 2 अप्रैल
की सुबह ही टांगा गया था। इससे पहले वर्षों से दीवार पर शरद यादव और
नीतीश कुमार की तस्वीर के बीच जॉर्ज फर्नांडिस की तस्वीर लगी हुई थी। और
तीन दिन पहले ही शरद यादव की प्रेस कॉन्फ्रेन्स के दौरान पत्रकारों ने जब
शरद यादव से पूछा था कि जॉर्ज की तस्वीर लगी रहेगी या हट जायेगी तो शरद
यादव खामोश रह गये थे।

लेकिन 30 मार्च को शरद यादव के बाद 2 अप्रैल को नीतीश की मौजूदगी में
जॉर्ज की जगह लगाया गया यह बोर्ड तीसरी बार तब गिरा, जब प्रेस
कॉन्फ्रेन्स के बाद नीतीश कुमार जदयू मुख्यालय छोड़ कर निकल रहे थे ।
मुख्यालय में यह तीनों तस्वीरें नीतीश के पहली बार मुख्यमंत्री बनने के
दौरान लगायी गयी थीं। उस दिन गुलाल और फूलों से नीतीश के साथ साथ जॉर्ज
और शरद यादव भी सराबोर थे। उस वक्त तीनों नेताओ को देखकर ना तो कोई सोच
सकता था कि कोई अलग कर दिया जायेगा या तीनों तस्वीरों को देख कर कभी किसी
ने सोचा नहीं था की जॉर्ज की तस्वीर ही दीवार से गायब हो जायेगी। और इसके
पीछे वही तस्वीर होगी, जिन्हें राजनीति के फ्रेम में मढ़ने का काम जॉर्ज
फर्नांडिस ने किया।

जार्ज फर्नांडिस कितने भी अस्वस्थ क्यों ना हों, लेकिन जो राजनीति देश
में चल रही है उससे ज्यादा स्वस्थ्य जॉर्ज हैं, यह कोई भी ताल ठोंक कर कह
सकता है। शरद यादव को जबलपुर के कॉलेज से राजनीति की मुख्यधारा में लाने
से लेकर लालू यादव की राजनीति को काटने के लिये नीतीश कुमार में पैनापन
लाने के पीछे जॉर्ज ही हैं। लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस की जगह नीतीश कुमार को
वह जय नारायण निषाद मंजूर हैं, जो लालू यादव का साथ छोड़ टिकट के लिये
नीतीश के साथ आ खड़े हुये हैं।

सवाल जॉर्ज की सिर्फ एक सीट का नहीं है, सवाल उस राजनीतिक सोच का है
जिसमें खुद का कद बढ़ाने के लिये हर बड़ी लकीर को नेस्तानाबूद करना शुरु
हुआ है। और यह खेल संयोग से उन नेताओं में शुरु हुआ है, जो इमरजेन्सी के
खिलाफ जेपी आंदोलन से निकले हैं। हांलाकि सत्ता की राजनीतिक लकीर में
जॉर्ज ज्यादा बदनाम हो गये क्योंकि अयोध्या से लेकर गुजरात दंगो के दौरान
जॉर्ज बीजेपी को अपनी राजनीति विश्वनियता के ढाल से बचाने की कोशिश करते
रहे। लेकिन गुजरात दंगो के दौरान नीतीश और शरद यादव में भी हिम्मत नहीं
थी कि वह जॉर्ज से झगडा कर एनडीए गठबंधन से अलग होने के लिये कहते। दोनो
ही सत्ता में मंत्रीपद की मलाई खाते रहे।

असल में जार्ज अगर ढाल बने तो उसके पीछे उनकी वह राजनीतिक यात्रा भी है,
जो बेंगलूर के कैथोलिक सेमीनरी को छोड़ कर मुंबई के फुटपाथ से राजनीति का
आगाज करती है। मजदूरों के हक के लिये होटल-ढाबा के मालिकों से लेकर मिल
मालिकों के खिलाफ आवाज उठाकर मुंबई में हड़ताल-बंद और अपने आंदोलन से शहर
को ठहरा देने की हिम्मत जॉर्ज ने ही इस शहर को दी। 1949 में मुंबई पहुंचे
जॉर्ज ने दस साल में ही मजदूरों की गोलबंदी कर अगर 1959 में अपनी ताकत का
एहसास हडताल और बंद के जरीये महाराष्ट्र की राजनीति को कराया तो 1967 में
कांग्रेस के कद्दावर एस के पाटिल को चुनाव में हराकर संसदीय राजनीति में
नेहरु काल के बाद पहली लकीर खिंची, जहां आंदोलन राजनीति की जान होती है,
इसे भी देश समझे। जॉर्ज उस दौर के युवाओं के हीरो थे । क्योंकि वह रेल
यूनियन के जरीये दुनिया की सबसे बड़ी हडताल करते हैं। सरकार उनसे डरकर
उनपर सरकारी प्रतिष्ठानों को डायनामाइट से उड़ाने का आरोप लगाती है।
इसीलिये इमरजेन्सी के बाद 1977 के चुनाव में जब हाथों में हथकडी लगाये
जॉर्ज की तस्वीर पोस्टर के रुप में आती है, तो मुज्जफरपुर के लोगों के
घरों के पूजाघर में यह पोस्टर दीवार पर चस्पा होती है। जिस पर छपा था, यह
हथकड़ी हाथों में नही लोकतंत्र पर है। और नीचे छपा था- जेल का ताला
टूटेगा जॉर्ज फर्नाडिस छूटेगा।

जाहिर है बाईस साल पहले के चुनाव और अब के चुनाव में एक नयी पीढ़ी आ चुकी
है, जिसे न तो जेपी आंदोलन से मतलब है, न इमरजेन्सी उसने देखी है। और
जॉर्ज सरीखा व्यक्ति उसके लिये हीरो से ज्यादा उस गंदी राजनीति का प्रतीक
है, जिस राजनीति को जनता से नही सत्ता से सरोकार होते है। इस पीढी ने
बिहार में लालू का शासन देखा है और नीतीश को अब देख रहा है। नीतीश उसके
लिये नये हीरो हो सकते हैं क्योकि लालू तंत्र ने बिहार को ही पटरी से
उतार दिया था। लेकिन लालू के खिलाफ नीतीश को हिम्मत जॉर्ज फर्नाडिस से ही
मिली चाहे वह समता पार्टी से हो या जनतादल यूनाईटेड से। लेकिन केन्द्र
में एनडीए की सत्ता जाने के बाद बिहार में लालू सत्ता के आक्रोष को
भुनाने के लिये जो रणनीति नीतीश ने बनायी, उसमें अपने कद को बढाने के
लिये जॉर्ज को ही दरकिनार करने की पहली ताकत उन्होने 12 अप्रैल 2006 में
दिखा दी। लेकिन सियासत की बिसात कैसे महाभारत की चौसर पर भी भारी हो चुकी
है इसका एहसास तो तब शरद यादव को भी हो चुका होगा । जो 13 बरस पहले नीतिश
की बिसात पर वजीर बन कर जार्ज को मात देने के लिये तैयार हो गये । और बरस
भर पहले नीतिश ने सत्ता के लिये मोदी प्रेम तले शरद यादव को भी दरकिनार
कर दिया । तो 2006 को याद किजिये जार्ज के खिलाफ जब पार्टी अध्यक्ष चुनाव
में शरद यादव और जॉर्ज आमने सामने खड़े थे । बिलकुल गुरु और चेले की
भिंडत । मगर बिसात नीतिश की थी । जार्ज को 25 वोट मिले और शरद यादव को
413 । लेकिन चुनाव के तरीके ने यह संकेत तो दे दिये की नीतीश की बिसात पर
जॉर्ज का कोई पांसा नहीं चलेगा और जॉर्ज को खारिज करने के लिये नीतीश
अपने हर पांसे को जार्ज की राजनीतिक लकीर मिटाकर अपनी लकीर को बड़ा
दिखाने के लिये ही करेंगे ।

लेकिन, इसका अंदाजा किसी को नहीं था कि इस तिगडी की काट वही राजनीति
होगी, जिस राजनीति के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने की बात तीनों ने ही अपने
राजनीतिक कैरियर की शुरुआत में की थी । इसीलिये जॉर्ज को अस्वस्थ बताकर
मुज्जफरपुर से टिकट काटने के बाद नीतीश ठहाका लगा रहे थे कि बिना उनके
समर्थन के जॉर्ज चुनाव मैदान में कूदकर अपनी भद ही करायेंगे । वहीं,
जॉर्ज अपना राजनीतिक निर्वाण लोकसभा चुनाव लड़कर ही चाहते हैं। इसीलिये
जॉर्ज ने पर्चा भरने के बाद अपने मतदाताओं से जिताने की तीन पन्नो की जो
अपील की है, उसका सार यही है कि जिस तरह गौतम बुद्द के दो शिष्यों में एक
देवदत्त था, जो बुद्ध को मुश्किलों में ही डालता रहा, वहीं उनके दोनों
शिष्य ही देवदत्त निकले । आनंद जैसा कोई शिष्य जार्ज को तब मिला नहीं और
अनथक विद्रोही नेता उसके बाद धीरे धीरे भूलने वाली बिमारी की चपेट में आ
गये । अल्जाइमर ने गिरफ्त में लिया तो जार्ज भूल गये नीतिश कौन है । शद
यादव कौन है । इंदिरा गांधी कौन थी । बाल ठाकरे कौन थे । अच्छा है इस दौर
में उनकी यादश्त नहीं थी वर्ना प्रधानमंत्री मोदी को देख गुजरात दंगो के
दौर में वाजपेयी के राजधर्म को याद करते और अब के राजधर्म को नकारने के
लिये निकल पडते । लंबी खामोशी के बाद जार्ज के निधन की खबर भी जिस खामोशी
के साथ आई उसने निद्रा में समायी मौजूदा सियासत को सिर्फ मौत की सूचना भर
से जगाया । अच्छा है एनडीए के पांच सारथियो में से वाजपेयी और जार्ज का
निधन हो चुका है । दोनो ही आखरी दिनो में सबकुछ भूल चुके थे ।  जसवंत
सिन्हा भी सबकुछ भूल चुके है  [ अल्जाइमर से ग्रसित ]  । आडवाणी और मुरली
मनोहर जोशी को खामोश किया जा चुका है ।  तो अस्वस्थ जार्ज के निधन की खबर
भी अस्वस्थ सियासत तले दब गई ।


19 comments:

Sandeep said...

Namaste sir, great work. Really you are live chadakya.

Unknown said...

Salute sir,,,

Unknown said...

Great sir

जागृति said...

बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने।

Unknown said...

Good job sir

Unknown said...

Aap ka video ham pahle hi dekh liye tha, acha jankari mili

Jyoti kumar patel said...

सर खुद का न्यूज़ चैनल क्यों नहीं सूरु कर लेते है । आप बहुत ही ईमानदार रिपोटर है जय हो

Unknown said...

राइट सर

Shakib hashmi said...

Great sir I really appreciate you.👌👌👌
Start your own channel we want to see you.
Youtube is a great platform to spread your voice.
Hope you will try to do our request.
Thanks a lot.

Unknown said...

जुझारू जार्ज को भावभीनी श्रद्धांजलि।

Sahas said...

Jaswant Sinha nahi jasesnt singh

आर्य मुसाफिर said...

लगभग छ: हजार वर्ष से हमारे देश में लोकतन्त्र/प्रजातन्त्र/जनतन्त्र/जनता का शासन/पूर्णत: स्वदेशी शासन व्यवस्था नहीं है। लोकतन्त्र में नेता / जनप्रतिनिधि चुनने / बनने के लिये नामांकन नहीं होता है। नामांकन नहीं होने के कारण जमानत राशि, चुनाव चिह्न और चुनाव प्रचार की नाममात्र भी आवश्यकता नहीं होती है। मतपत्र रेल टिकट के बराबर होता है। गुप्त मतदान होता है। सभी मतदाता प्रत्याशी होते हैं। भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं होता है। लोकतन्त्र में सुख, शान्ति और समृद्धि निरन्तर बनी रहती है।
सत्तर वर्ष से गणतन्त्र है। गणतन्त्र पूर्णत: विदेशी शासन प्रणाली है। गणतन्त्र का अर्थ है- गनतन्त्र = बंदूकतन्त्र, गुण्डातन्त्र = गुण्डाराज, जुआंतन्त्र = चुनाव लडऩा अर्थात् दाँव लगाना, पार्टीतन्त्र = दलतन्त्र, तानाशाहीतन्त्र, परिवारतन्त्र = वंशतन्त्र, गठबन्धन सरकार = दल-दलतन्त्र = कीचड़तन्त्र, गुट्टतन्त्र, धर्मनिरपेक्षतन्त्र = अधर्मतन्त्र, सिद्धान्तहीनतन्त्र, आरक्षणतन्त्र = अन्यायतन्त्र, अवैध पँूजीतन्त्र = अवैध उद्योगतन्त्र - अवैध व्यापारतन्त्र - अवैध व्यवसायतन्त्र - हवाला तन्त्र अर्थात् तस्करतन्त्र-माफियातन्त्र; फिक्सतन्त्र, जुमलातन्त्र, विज्ञापनतन्त्र, प्रचारतन्त्र, अफवाहतन्त्र, झूठतन्त्र, लूटतन्त्र, वोटबैंकतन्त्र, भीड़तन्त्र, भेड़तन्त्र, भाड़ातन्त्र, भड़ुवातन्त्र, गोहत्यातन्त्र, घोटालातन्त्र, दंगातन्त्र, जड़पूजातन्त्र (मूर्ति व कब्र पूजा को प्रोत्साहित करने वाला शासन) अर्थात् राष्ट्रविनाशकतन्त्र। गणतन्त्र को लोकतन्त्र कहना अन्धपरम्परा और भेड़चाल है। अज्ञानता और मूर्खता की पराकाष्ठा है। बाल बुद्धि का मिथ्या प्रलाप है।
निर्दलीय हो या किसी पार्टी का- जो व्यक्ति नामांकन, जमानत राशि, चुनाव चिह्न और चुनाव प्रचार से नेता / जनप्रतिनिधि (ग्राम प्रधान, पार्षद, जिला पंचायत सदस्य, मेयर, ब्लॉक प्रमुख, विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि) बनेगा। उसका जुआरी, बेईमान, कामचोर, पक्षपाती, विश्वासघाती, दलबदलू, अविद्वान्, असभ्य, अशिष्ट, अहंकारी, अपराधी, जड़पूजक (मूर्ति और कब्र पूजा करने वाला) तथा देशद्रोही होना सुनिश्चित है। इसलिये ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमन्त्री तक सभी भ्रष्ट हैं। अपवाद की संभावना बहुत कम या नहीं के बराबर हो सकती है। इसीलिये देश की सभी राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक, भौगोलिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषायी और प्रान्तीय समस्यायें निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। सभी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय राजनैतिक दल देश को बर्बाद कर रहे हैं। राष्ट्रहित में इन राजनैतिक दलों का नामोनिशान मिटना / मिटाना अत्यन्त आवश्यक है।
विदेशी शासन प्रणाली और विदेशी चुनाव प्रणाली के कारण भारत निर्वाचन आयोग अपराधियों का जन्मदाता और पोषक बना हुआ है। इसलिये वर्तमान में इसे भारत विनाशक आयोग कहना अधिक उचित होगा। जब चुनाव में नामांकन प्रणाली समाप्त हो जायेगा तब इसे भारत निर्माण आयोग कहेंगे। यह हमारे देश का सबसे बड़ा जुआंघर है, जहाँ चुनाव लडऩे के लिये नामांकन करवाकर निर्दलीय और राजनैतिक दल के उम्मीदवार करोड़ो-अरबों रुपये का दाँव लगाते हैं। यह चुनाव आयोग हमारे देश का एकमात्र ऐसा जुआंघर है, जो जुआरियों (चुनाव लड़कर जीतने वालों) को प्रमाण पत्र देता है।
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पूर्णत: अविश्वसनीय उपकरण है। यह ई.वी.एम. भ्रष्टाचार का अत्याधुनिक यंत्र है। आम आदमी इन मशीनों द्वारा होने वाले जालसाजी से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि उनके पास इस विषय में सोचने का समय और समझ नहीं है। इन मशीनों द्वारा होने वाली जालसाजी को कम्प्यूटर चलाने वाले और सॉफ्टवेयर बनाने वाले बुद्धिमान इंजीनियनर/तकनीशियन लोग ही निश्चित रूप से जानते हैं। वर्तमान में सभी राजनैतिक दल ई.वी.एम. से होने वाले भ्रष्टाचार से परिचित हंै, जब तक विपक्ष में रहते हैं तब तक ई.वी.एम को हटाने की मांग करते हैं, लेकिन जिस पार्टी की सरकार बन जाती है वह पार्टी चुप रहता है। अनेक देशों में ई. वी. एम. पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित है। ई. वी. एम. के स्थान पर कुछ जगह वी. वी. पेट. का प्रयोग किया जाता है, जो बहुत खर्चीला है। उसमें निकलने वाले मतपत्रों (पर्चियों) को सुरक्षित रखने और गिनने से तो अच्छा है कि पुरानी पद्धति से बड़े-बड़े मतपत्रों में मुहर लगवाकर मतदान करवाया जाय। हमारे देश के सभी ई. वी. एम. और वी. वी. पेट मशीनों को तोड़-फोड़ कर, आग लगाकर या समुद्र में फेंककर नष्ट कर देना चाहिये।
गणतन्त्र अर्थात् पार्टीतन्त्र/ दलतन्त्र/ दल-दलतन्त्र/ गठबन्धन सरकार में हमारे देश का राष्ट्रपति सत्ताधारी राजनैतिक दल की कठपुतली/ रबर स्टैम्प/ गुलाम/ नौकर/ बंधुआ मजदूर/ मूकदर्शक होता है। राजनैतिक दलों के नेताओं को आपस में कुत्तों जैसे लड़ते हुए देखकर, जनता को कष्टों से पीडि़त देखकर, देश को बर्बाद होते हुए देखकर भी चुप रहता है।

Arvind Pandey said...

बहुत सुन्दर

Arvind Pandey said...

New ब्लॉग लिखिए सर

Sandeep said...

बाजपेई जी आज के हालातों पर कुछ लिखिए और आम जनता का मार्ग दर्शन कीजिए। 29 तारीख के बाद से मन बेचैन हैं कि आप कुछ कह क्यों नहीं रहे हैं।

Sandeep Gupta said...

Prasoon ji where are you,we are greatly missing your blogs.

Sandeep said...

Are you okay?.

Yusuf Humayun said...

write more blogs sir...

apna sapna money money said...


I want to work in suryasamachar.

For new playlist on YouTube like lallantop indiranama episode and pradhanmantri.we will work on new content like modinama with neutral response about all political parties and people.