बंधु, मामला कश्मीर का हो और आप इस या उस पार खड़े न हो, तो आपकी पहचान क्या है ? आजादी के बाद इकसठ साल में बतौर देश के नागरिक यह तमगा सीने पर कोई भी ठोंक सकता है। क्योंकि जैसे ही आप कश्मीर के मुश्किलात के साथ खडे होंगे आपको मुस्लिम लीग का ठहरा दिया जायेगा या आंतकवादियों का हिमायती या अलगाववादियों की कतार में खड़ा कर दिया जायेगा । और अगर आप कश्मीरियों का विरोध करेंगे, कश्मीरियों की आजादी के शब्द को पाकिस्तान से जोड़ेंगे तो देशभक्ति का राग आपके अंदर बजने लगेगा। जम्मू के लोग अपने आंसुओं में आपकी संवेदनाओं को देखेंगे।
अब सवाल है कि उन लोगो का क्या होगा जो सिर्फ कश्मीर को लेकर भारत सरकार के नजरिए को समझना चाहते है। ऐसा भी नहीं है कि देश के किसी राजनीतिक दल को केन्द्र में सत्ता का स्वाद चखने का मौका न मिला हो। संयोग से सभी राजनीतिक दलो ने गठबंधन के आसरे उन्हीं दो दशको में केन्द्र की सत्ता देखी है, जिस दौर मे कश्मीर में आजादी का राग तेज हुआ । यह राग जिन राजनीतिक दलो को पंसद है उन्होंने केन्द्र की सत्ता में रहते हुये कश्मीरियों के मुद्दे को सुन कर सुलझाया क्यो नहीं । आजादी शब्द में जिन राजनीतिक दलो को देशद्रोह की बू आती है तो ऐसे राजनीतिक दलो ने केन्द्र की सत्ता में रहते हुये इसका ऑपरेशन क्यों नहीं कर दिया जिसकी वकालत अब की जा रही है।
आप कहेगें राजनीतिक दलो ने तो बंटाधार किया ही है,इसका समाधान है क्या । मुझे लगता है यह समझना होगा कि जब राज्य मीडिया पर रोक लगाने की स्थिति में आ जाये और विरोध के स्वर दबा कर खुद जोर से बोलकर उसे सच बताने की जुर्रत करने लगे तब देश में लोकतंत्र हाशिये पर ढकेला जाने लगा है, यह तो मानना ही होगा । मुझे तो लगता है कि कश्मीर पर कुछ कहने से पहले देश के नागरिको को कश्मीर जाना भी चाहिए। यहां आप यह सोच कर नाराज न होइए कि पंडितो की हालत देखने के लिये जम्मू जाने की बात क्यों नहीं की जा रही है। यकीनन पंडितों की हालत बद् से बदतर है । खासकर अगर उनके राहत शिविरों में कोई भी चला जाये तो न्यूनतम जरुरतों से कैसे हर वक्त उन लोगो को दो- चार होना पड़ता है जिनके ठाठ 1987 से पहले धाटी में रहते हुये थे, देखकर अपनी आंखे शर्म से झुक जायेगी।
लेकिन घाटी में जब हर क्षण आप सेना की बंदूक के निशाने पर हों और शाम ढलते ही सडक पर वर्दी में कोई भी आपको बोले "जनाब रुक जाईये और आपकी जान पर बन आये।" उस पर आप मुस्लिम हो तो आपके कपड़ों के अंदर जिस्म टटोलकर सेना सुकून पाये तो आप क्या कहेगे। अगर गाडी का नंबर दिल्ली या किसी दूसरे राज्य का है तब तो ठीक और अगर कश्मीर का है तो हर शाम ढलते ही आप सफर करके देख लीजिए। आप कश्मीर में आजादी के नारे को छोडिये..यह बताइये कि देश में कही भी अगर ऐसे हालात हैं तो आजादी होनी चाहिये इसकी मांग कोई करेगा या नहीं।
आप कह सकते है, यह व्याख्या तो सीमापार से की जाती है । लेकिन मेरा मानना है कि कश्मीर भारत का अंखड हिस्सा है इससे इंकार जब कोई नहीं कर रहा तो सीमा पार के उकसावे में हम क्यों फंस जाते हैं । उसकी भाषा तो छोडिये वहां का राजनीतिक तानाशाही मिजाज, सामाजिक टकराव, आर्थिक दिवालियापन, क्या इससे कश्मीरी वाकिफ नहीं है ।
मुझे पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर यानी पीओके में भी जाने का मौका मिला है । मेरे साथ कश्मीर के रिपोर्टर अशरफ भी थे। यकीन किजिये जब उन्हे यह पता चला कि अशरफ कश्मीर से हैं तो पीओके के अधिकतर परिवार वाले यही जानना चाहते थे कि अशरफ ने शादी की है या नहीं । या फिर किसी तरह उनकी लड़की से निकाह करके पीओके से लडकी हिन्दुस्तान ले जाये ताकि लडकी की जिन्दगी बन जाये । पीओके के कश्मीरियों का बस चले तो वह एलओसी पार कर इसपार आ जाये । कश्मीर जिस तरह जन्नत है, वही पीओके में जंगल-पहाड़ नंगे हो चुके है । पेड़-दर-पेड़ काटने की रफ्तार कितनी तेज है, इसका अंदाजा पीओके से इस्लामाबाद आते ट्रकों की आवाजाही से समझा जा सकता है, जिसमें हर तीसरे ट्रक पर शहतीर यानी कटे हुये पेड़ होते है । पीओके में रहने वालो का मानना है कि पाकिस्तान को तो डर लगता है कि कभी पोओके भी उनके हाथ से ना निकल जाये इसलिये पीओके की समूची खनिज संपदा को ही पाकिस्तान खंगाल रहा है । पीओके में कोई उघोग नही है। काम के नाम पर पेड़ काटना और खादान से माल निकालना भर काम है। यानी अपनी ही जमीन पर गड्डा करके जीने को पीओके के कश्मीरी मजबूर है। ऐसा नही है कि आजादी का नारा लगाने वाले कश्मीरी इस हकीकत को नहीं जानते । या फिर अलगाववादी नहीं जानते। सभी जानते-समझते है । मुशर्रफ के दौर में याद कीजिये जब भारत पाकिस्तान की शांति वार्त्ता के वक्त पहली बार अलगाववादी पाकिस्तान गये थे । कश्मीर के अलगाववादियो को पीओके की संसद में तकरीर का भी मौका मिला था । जो यासिन मलिक 1989 में बंदूक लेकर कश्मीर की आजादी का नारा लगाते हुये मुज्जफराबाद गये थे, उसी यासिन मलिक ने पीओके की संसद के भीतर आजादी के नाम पर पाकिस्तान पर धोखा देने का आरोप भी लगाया और फैज के उस गीत..हम देखेगे..जब ताज उछाले जायेगे...को भी सुना दिया ।
सवाल यह नहीं है कि आजादी का नारा लग रहा तो राजनीति क्या करेगी और हम आप सीधे यह सवाल करने लगे कि फिर समाधान क्या है । इस मिजाज को समझिये की यह देश सांप्रदायिक नहीं है । चाहे राजनीति कितना भी सांप्रदायिकता का पाठ कश्मीर और जम्मू के आसरे पढाये देश हिन्दू- मुसलमान के आसरे नहीं बंट सकता है । हां, समूचे समाज को अगर देश चलाने वाले असुरक्षित करें और धर्म के आसरे सुरक्षा की बात करने लगेंगे तब धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की परिभाषा भी कश्मीर और जम्मू के जरिए लिखने की कोशिश भी होगी । हमारे सामने हर मुद्दे को सुरक्षा के खतरे से जोड़ कर देखने का जो आईना बनाया जा रहा है, उसे तोड़ना हमीं-आपको है । मान लिजिये देश को सांप्रदायिकता की आग में झोकने की कोशिश आजादी के वक्त भी हुई थी, लेकिन गांधी की हत्या ने जतला दिया कि देश सांप्रदायिक हो ही नहीं सकता । गांधी को किसी मुसलमान ने नहीं, हिन्दू ने मारा था । इसकी व्याख्या हिन्दू के जरिए नहीं गांधी के जरिए कीजिए रास्ता दिखने लगेगा।
Sunday, August 31, 2008
[+/-] |
कश्मीर को सांप्रदायिकता की आग में मत झोंको |
Wednesday, August 27, 2008
[+/-] |
आजादी के नारों से डर कौन रहा है ? |
कश्मीर के इतिहास में 1953 के बाद पहला मौका आया, जब 25 अगस्त 2008 को कश्मीर में कोई अखबार नहीं निकला । घाटी में सेना की मौजूदगी का एहसास पहली बार पिछले दो दशक के दौरान मीडिया को भी हुआ । 1988 में बिगडे हालात कई बार बद-से-बदतर हुये लेकिन खबरो को रोकने का प्रयास सेना ने कभी नहीं किया। अब सवाल उठ रहे है कि क्या वाकई घाटी के हालात पहली बार इतने खस्ता हुए हैं कि आजादी का मतलब भारत से कश्मीर को अलग देखना या करना हो सकता है। जबकि आजादी का नारा घाटी में 1988 से लगातार लग रहा है । लेकिन कभी खतरा इतना नहीं गहराया कि मीडिया की मौजूदगी भी आजादी के नारे को बुलंदी दे दे । या फिर पहली बार घाटी पर नकेल कसने की स्थिति में दिल्ली है, जहां वह सेना के जरिए घाटी को आजादी का नारा लगाने का पाठ पढ़ा सकती है।
दरअसल, हालात को समझने के लिये अतीत के पन्नो को उलटना जरुरी होगा । क्योकि दो दशक के दौरान झेलम का पानी जितना बहा है, उससे ज्यादा मवाद झेलम के बहते पानी को रोकता भी रहा है । इस दौर के कुछ प्यादे मंत्री की चाल चलने लगे तो कुछ घोड़े की ढाई चाल चल कर शह-मात का खेल खेलने में माहिर हो गये । घाटी के लेकर पहली चाल 1987 के विधान सभा चुनाव के दौरान दिल्ली ने चली थी । बडगाम जिले की अमिरा-कडाल विधानसभा सीट पर मोहम्मद युसुफ शाह की जीत पक्की थी । लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला के लिये सत्ता का रास्ता साफ करने का समझौता दिल्ली में हुआ । कांग्रेस की सहमति बनी और बडगाम में पीर के नाम से पहचाने जाने वाले युसुफ शाह चुनाव हार गये । न सिर्फ चुनाव हारे बल्कि विरोध करने पर उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया । युसुफ शाह के चार पोलिंग एंजेट हामिद शेख, अशफाक मजिद,जावेद अहमद मीर और यासिन मलिक भी गिरफ्तार कर लिये गए । चारो पोलिग एजेंट 1987 में प्यादे की हैसियत रखते थे । लेकिन इस चुनाव परिणाम ने फारुख अब्दुल्ला के जरिए घाटी को दिल्ली के रास्ते चलने का जो मार्ग दिखाया, उसमें संसदीय लोकतंत्र के हाशिये पर जाना भी मौजूद था । जिससे कश्मीर में 1953 के बाद पहली बार आजादी का नारा गूंजा । कोट बिलावल की जेल से छूट कर मोहम्मद युसुफ शाह जब बडगाम में अपने गांव सोमवग पहुंचे तो हाथ में बंदूक लिये थे । और चुनाव में हार के बाद जो पहला भाषण दिया उसमें आजादी के नारे की खुली गूंज थी । युसुफ शाह ने कहा,
" हम शांतिपूर्ण तरीके से विधानसभा में जाना चाहते थे । लेकिन सरकार ने हमें इसकी इजाजत नहीं दी । चुनाव चुरा लिया गया । हमे गिरफ्तार किया गया , और हमारी आवाज दबाने के लिये हमें प्रताड़ित किया गया । हमारे पास दूसरा कोई विकल्प नही है कि हम हथियार उठाये और कश्मीर के मुद्दे उभारे ।"
उसके बाद युसुफ शाह ने नारा लगाया, " हमें क्या चाहिये--आजादी । गांव वालों ने दोहराया -आजादी " बड़गाम के सरकारी हाई सेकेन्डरी स्कूल से पढाई करने के बाद डॉक्टर बनने की ख्वाईश पाले युसुफ शाह को मेडिकल कालेज में तो एडमिशन नहीं मिला लेकिन राजनीति शास्त्र पढ़ कर राजनीति करने निकले युसुफ शाह के नाम की यहां मौत हुई और आजादी की फितरत में 5 नवंबर 1990 को युसुफ शाह की जगह सैयद सलाउद्दीन का जन्म हुआ । जो सीमा पार कर मुज्जफराबाद पहुंचा और हिजबुल मुजाहिद्दीन बनाकर आंतकवादी हिंसा को अंजाम देते देते पाकिस्तान के तेरह आंतकवादी संगठन के जेहाद काउंसिल का मुखिया बन गया।
दो दशक बाद जब आजादी के नारे घाटी में गूंजते हुये दिल्ली को ललकार रहे हैं, तो सैयद सलाउद्दीन ने भी जेहादियो से कश्मीर में हिंसा के बदले सिर्फ आजादी के नारे लगाने का निर्देश दिया है ।
लेकिन आजादी के नारे को सबसे ज्यादा मुखरता 1989 में मिली । यहां भी दिल्ली की चाल कश्मीर के लिये ना सिर्फ उल्टी पडी बल्कि आजादी को बुलंदी देने में राजनीतिक चौसर के पांसे ही सहायक हो गये । इतना ही नहीं राजनीति 180 डिग्री में कैसे घुमती है, यह दो दशक में खुलकर नजर भी आ गया । 8 दिसंबर 1989 को देश के तत्कालिन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद का अपहरण हुआ । रुबिया का अपहरण करने वालो उसी युसुफ शाह के पोलिंग एंजेट थे, जिनकी पहचान घाटी में प्यादे सरीखे ही थी । मेडिकल की छात्रा रुबिया का अपहरण सड़क चलते हुआ । यानी उस वक्त तक किसी कश्मीरी ने नहीं सोचा था कि कि किसी लड़की का अपहरण घाटी में कोई कर भी सकता है । अगर उस वक्त के एनएसजी यानी नेशनल सिक्युरटी गार्ड के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह की माने तो रुबिया के अपहरण के खिलाफ घाटी की मानसिकता थी । आम कश्मीरी इस बात को पचा नहीं पा रहा था कि रुबिया का अपहरण राजनीतिक सौदेबाजी की लिये करना चाहिये । लेकिन दिल्ली की राजनीतिक चौसर का मिजाज कुछ था । दिल्ली के अकबर रोड स्थित गृहमंत्री के घर पर पहली बैठक में उस समय के वाणिज्य मंत्री अरुण नेहरु , कैबिनेट सचिव टी एन शेषन, इंटिलिजेन्स ब्यूरो के डायरेक्टर एम के नारायणन और एनएसजी के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह मौजूद थे । जिसके बाद बीएमएफ के विशेष विमान से वेद मारवाह को श्रीनगर भेजा गया । 13 जिसंबर को केन्द्र के दो मंत्री इंन्द्र कुमार गुजराल और आरिफ मोहम्मद खान भी श्रीनगर पहुचे । अपहरण करने वालो की मांग पांच आंतकवादियो की रिहायी की थी । जिसमें हामिद शेख,मोहम्मद अल्ताफ बट,शेर खान, जावेद अहमद जरगर और मोहम्मद कलवल थे । अगर एनएसजी के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह की मानें तो अपहरण से रिहायी तक के हफ्ते भर के दौर में कभी दिल्ली की राजनीति को नहीं लगा कि मामला लंबा खिचने पर भी अपहरणकरने वालो के खिलाफ धाटी में वातावरण बन सकता है । खुफिया तौर पर कभी उसके संकेत नहीं दिये गये कि रुबिया का कहां रखा गया होगा, इसकी जानकारी जुटायी जा रही है या फिर कौन कौन से लोग अपहरण के पीछे है, कभी खुफिया व्यूरो को क्लू नहीं मिला।
महत्वपूर्ण है कि उस वक्त के आई बी के मुखिया ही अभी देश के सुरक्षा सलाहकार है । और उस वक्त समूची राजनीति इस सौदे को पटाने में धोखा ना खाने पर ही मशक्कत कर रही थी । चूंकि अपहरण करने वालो ने सौदेबाजी के कई माध्यम खोल दिये थे इसलिये मुफ्ती सईद से लेकर एम के नारायणन तक उसी माथापच्ची में जुटे थे कि अपहरणकर्ताओ और सरकार के बीच बात करने वाला कौन सा शख्स सही है । पत्रकार जफर मिराज या जाक्टर ए ए गुरु या फिर मस्लिम युनाइटेड फ्रंट के मौलवी अब्बास अंसारी या अब्दुल गनी लोन की बेटी शबनम लोन । और दिल्ली की राजनीति ने जब पुख्ता भरोसा हो गया कि बाचचीत पटरी पर है तो पांचों आंतकवादियो को छोड दिया गया । और रुबिया की रिहायी होते ही सभी अधिकारी-- मंत्री एक दूसरे को बधाई देने लगे । लेकिन रिहायी की शाम लाल चौक पर कश्मीरियो का हुजुम जिस तरह उमडा उसने दिल्ली के होश फाख्ता कर दिये क्योकि जमा लोग आंतकवादियो की रिहायी पर जश्न मना रहे थे और आजादी का नारा लगा रहे थे ।
वेद मारवाह ने अपनी किताब "अनसिविल वार" में उस माहौल का जिक्र किया है जो उन्होने कश्मीर में रुबिया और आंतकवादियो की रिहायी की रात देखा । "शाम सात बजे रिहायी हुई । मंत्री विशेष विमान से दिल्ली लौट आये । कश्मीर की सड़को लोगो का ऐसा सैलाब था कि लगा समूचा कश्मीर उतर आया । जश्न पूरे शबाब पर था । सडको पर पटाखे छोडे जा रहे थे । युवा लडकों के झुंड गाडियों को रोक कर अपने जश्न का खुला इजहार कर रहे थे । मंत्रियो को छोचने जा रही सरकारी गांडियो को भी रोका गया । सरकारी गेस्ट हाउस में जश्न मनाया जा रहा था । वर्दी में जम्मू-कश्मीर पुलिस के कई पुलिसकर्मी भी जश्न में शामिल थे । आंतकवादियो के शहर को अपने कब्जे में ले रखा था, इससे छटांक भर भी इंकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि सभी यह महसूस कर रहे थे कि उन्होने दिल्ली को अपने घुटनों पर झुका दिया । और इन सब के बीच आजादी के नारे देर रात तक लगते रहे । "
दरअसल, दिल्ली की राजनीति यही नही थमी । सबसे पहले खुफिया ब्युरो को अपहरण कांड में असफल साबित हुई थी उसके ज्वाइंट डायरेक्टर जो एन सक्सेना को जम्मू कश्मीर पुलिस का डायरेक्टर जनरल बना दिया गया । राज्य के पुलिसकर्मियों को कुछ समझ नही आया। उनमे आक्रोष था लेकिन दिल्ली की राजनीति उफान पर थी । कानून व्यवस्था हाथ से निकली । 20 दिसबंर 1989 को रेजिडेन्सी रोड जैसी सुरक्षित जगह पर यूनियन बैक आफ इंडिया लूट लिया गया । 21 दिसंबर को इलाहबाद बैक के सुरक्षाकर्मी की हत्या कर दी गयी । 20 से 25 दिसबंर के बीच श्रीनगर समेत छह जगहो पर पुलिस को आंतकवादियों ने निशाना बनाया । दर्जनों मारे गये। इससे ज्यादा घायल हुये । जनवरी के पहले हफ्ते में कृष्म गोपाल समेत आई बी के दो अधिकारियो की भी हत्या कर दी गयी । इस पूरे दौर पर दिल्ली गृह मंत्रालय की रिपोर्ट मानती है कि डीजीपी समेत कोई वरिश्ठ अधिकारी श्रीनगर में हालात पर काबू पाने के लिये नहीं था। सभी जम्मू में थे । राजनीति यहां भी नही थमी । फारुख अब्दुल्ला ने जिन अधिकारियो की मांग की, उसे दिल्ली ने भेजना सही नहीं समझा । यहा तक की जनवरी में दिल्ली ने मान लिया की फारुख कुछ नही कर सकते । राज्यपाल जगमोहन को बनाया गया । और 18 जनवरी1990 को फारुख ने इस्तीफा दे दिया । घाटी में फिर आजादी के नारे लगने लगे । लेकिन इसके बाद जगमोहन और श्रीनगर जब आमने सामने आये तो आजादी का नारा इतना हिंसक हो चुका था कि समूची घाटी इसकी चपेट में आ गयी । कश्मीर में दंगो के बीच कत्लेआम और कश्मीरी पंडितो के सबकुछ छोड कर भागने की स्थिति को दिल्ली ने भी देखा । लेकिन कश्मीर की हिंसा को और आजादी के नारे की गूंज दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में खो गयी ।
1991-1996 तक कांग्रेस के पीवी नरसिंह राव की सरकार में कश्मीर में आजादी का नारा बुलंद होता गया । सेना की गोलिया चलती रही मरते कश्मीरियों की तादाद पचास हजार तक पार कर गयी । दुनिया के किसी प्रांत से ज्यादा सेना की मौजूदगी के बावजूद सीमापार का आंतक आजादी के नारे में उभान भरता गया । लेकिन ना आजादी के नारे पर नकेल कसने की पहल दिल्ली ने की ना ही इस दौर में जम्मू में पंडितो के बहते आंसू रोकने की ।
पहले अधिकारियो का उलट-फेर । फिर राज्यपाल का खेल । और अब चुनावी गणित साधने की कोशिश के बीच आजादी का नारा अगर एकबार फिर उफान पर है और दिल्ली की राजनीति पहली बार आजादी की गभीरता को समझ रही है तो मीडिया पर नकेल कसने के बजाय उसे अपनी नीयत साफ करनी होगी । कश्मीर देश का अभिन्न अंग है और अन्य राज्यों की तरह ही इसे भी सुविधा-असुविधा भोगनी होगी, यह कहने से दिल्ली अब भी घबरा रही है । कहीं इस घबराहट में नेहरु गलत थे और श्यामाप्रसाद मुखर्जी सही थे का विवाद जन्म देकर आजादी का नारा कहीं ज्यादा हिसंक बनाने की नयी राजनीतिक तैयारी तो नहीं की जा रही है? सवाल है कश्मीर को लेकर हमेशा इतिहास के आसरे समाधान खोजने की खोशिश हो रही है जबकि घाटी में नयी पीढी जो आजादी का नारा लगा रही है, वह शेख अब्दुल्ला को नही उमर अब्दुल्ला को पहचानती है । नेहरु की जगह उनके सामने राहुल गांधी है । लेकिन इसी दौर में समाज बांटने की राजनीति का खेल जो समूचे देश में खेला जा रहा है वह भी जम्मू-कश्मीर देख रहा है । इसलिये पहली बार आजादी का सवाल सुधार से आगे निकल कर विकल्प का सवाल खडा कर रहा जिससे दिल्ली का घबराना वाजिब है ।
Friday, August 22, 2008
[+/-] |
जवाब तो हम खोजेंगे... |
बंधुवर,
लोकतंत्र की बेबसी में संसदीय राजनीति को बेबस होना चाहिये था, लेकिन चर्चा में आम आदमी की बेबसी ही उभर रही है । संसदीय राजनीति कहीं ज्यादा ताकतवर-तानाशाह नजर आ रही है । मुझे लगता है, पहले हमें उन स्थितियों को समझना चाहिए जो हमारी हैं, और हमारी नहीं हैं । लोकतंत्र हमारा था। लेकिन, संसदीय राजनीति की तानाशाही हमारी नहीं थी। हम लोकतंत्र पर बात करना नहीं चाहते है...हम राजनेताओ की तानाशाही के आगे बेबस होकर चर्चा करते हुये हांफने लगते हैं । राज्य हमारा है..लोकहित के मद्देनजर राज्य की मौजूदगी थी। लेकिन, हम राज्य पर उंगली उठाने से घबराते है या यह बिगडते राज्य के चेहरे को संवारने के लिये किसी पहल से कतराते हैं। माओवादियों की हिंसा तो हमारी नहीं है, न ही माओवादियों को लेकर कोइ लोकहित का सवाल कभी राज्य के जरिए हमने जोड़ा है । फिर भी हम राज्य की तानाशाही पर सवाल उठाते हैं तो बात माओवादियों की होने लगती है ।
याद कीजिये जिस वक्त आजादी के जश्न में देश के नेता संसद समेत समूची दिल्ली में रोशनी किये हुये थे, उस वक्त महात्मा गांधी कोलकत्ता की एक इमारत में अंधेरा कर खामोशी के साथ बैठे हुये थे। बंगाल के राज्यपाल ने तब गांधी जी के पास जाकर उनके उस घर में रोशनी करने की बात कही थी। लेकिन गांधी उस वक्त की आजादी को दिल से स्वीकार पाने की स्थिति में नहीं थे। लेकिन नेहरु ने भी उस समय गांधी के आजादी के बॉयकट को राज्यविरोधी करने की हिम्मत नहीं दिखायी। गांधी भी वामपंथियो की तर्ज पर चीन या माओ की भाषा उस समय नहीं कहने लगे। गांधी देश की स्थितियो को देशवासियो के नजरिये से समझ रहे थे और समझाना भी चाह रहे थे ।
जो सवाल संजीत या पार्थ प्रतिम उठा रहे है, उस लीक पर आपको कोहरा ही मिलेगा । पहले यह समझिये की अगर राज्य अपनी जिम्मेदारी संसदीय राजनीति के तहत नहीं उठा रहा है तो हम उंगली राज्य पर उठायेगे या राज्य पर उंगली उठाने वालो के गलत तौर तरीको पर । माओवादी क्या करते है ..क्या कहते हैं..यह काम सरकार का है । अगर सरकार कुछ नही कर रही है तो क्या हम माओवादियो को सरकार मान सकते है । जबाब है बिलकुल नहीं । हां...कुछ लोग होगे जो सरकार के कामकाज और नेताओं की राजनीति से आजिज आकर माओवादियों को विकल्प के तौर पर देखते हों। लेकिन लोकतंत्र का मतलब तो यह है ही कि हर किसी को किसी वैचारिक स्थिति से जुडने का अधिकार है । नेपाल में सिर्फ चार साल पहले कोई सोच भी सकता था कि दुनिया का एकमात्र हिन्दुराष्ट्र नेपाल में माओवादियो की सरकार बन जायेगी । जबाब है बिलकुल नहीं । खासकर माओवादियों की हिंसा को लेकर तो कोई भी मान्यता नहीं दे सकता । लेकिन हम राज्य को लेकर सवाल इसलिये कर रहे हैं क्योकि देश में माओवादियो की हिंसा में तो पिछले चार दशको में तीस से चालीस हजार लोग मारे गये है ।
लेकिन देश के लोकतांत्रिक संसदीय चुनावी राजनीति के छह दशक के इतिहास में राजनीतिक रंजिश की हिंसा में तीन से चार लाख लोग मारे जा चुके है । क्या लोकतंत्र की राजनीति हत्या की इजाजत देती है । जबाब है बिलकुल नहीं । तो माओवादियो और संसदीय राजनीति में किसी आम आदमी के लिये अंतर क्या है । 18 दिन पहले हैदराबाद से एक हेलीकाप्टर क्रैश होकर मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ के जंगलो में गिर गया । जो हेलिकाप्टर में सवार थे, उनके घरवाले पिछले 18 दिनों से सरकार से बकायदा रहम की भीख मांग रहे है कि अधिकारी जंगलो में जा कर खोजे कि हेलीकाप्टर गिरा कहां है, कोई जीवित बचा है कि नही । लेकिन राज्य सरकारें खामोश है और पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी कह रहे है जंगलो में जा नहीं सकते क्योकि वहां माओवादियों की चलती है । अब आप कल्पना कर सकते हैं , सरकार या प्रशासन कल आपके किसी भी जायज संविधानमत कार्य को भी यह कहकर नहीं करे कि माओवादी विरोध कर रहे हैं , तो इसका मतलब क्या है । मुझे तो ऐसी कोई धटना याद नहीं, जिसमे किसी माओवादी को पुलिस ने पकड़ा हो और जनता का हुजुम उमड़ आया हो कि उसे सजा ना दी जाये । लेकिन देश के दर्जनों सांसद और सैकडो नेताओ की हकीकत है कि उन पर अदालत ने बकायदा सजा दे भी दी हो तब भी नेताओ के समर्थको का हुजुम नारा लगाता रहा..जब तक सूरज-चांद रहेगा..नेता तेरा नाम रहेगा । पिछले दिनो बिहार के सांसद सूरजभान को सजा सुनाये जाने पर खुली सड़को पर उनके समर्थक यह नारा लगा रहे थे।
मेरा सवाल है कही संसदीय राजनीति अपनी आपराधिक और भष्ट्र नीतियो के सामने उससे बडी लकीर खींच कर सुधार की एक सोच लगातार बनाये तो नही रखे हुये है । यानी चित-पट दोनो का खेल वही खेल रही है । यानी बदलाव न हो, इसलिये सुधार का चितंन समाज में रेंगता रहे और हम आप जैसे कथित बुद्दिजीवी रिफॉर्म को ही अंतिम हथियार मान कर समझौते का रुख अपनाये रहे । विकल्प पर खामोश हो जाये । संकट यही से शुरु होता है । क्या हम विकल्प के प्लेटफॉर्म पर चर्चा कर सकते हैं और पृथ्वी को किसी दूसरे ग्रह से देख सकते है। अगर नहीं तो आप बेबसी में आक्रोष करते रहिये । रास्ता तो हम खोजेगें...
Wednesday, August 20, 2008
[+/-] |
तंत्र की तानाशाही के आगे लोकतंत्र की बेबसी |
विकास की नयी आर्थिक लकीर महज गांव और छोटे शहरो से महानगरों की ओर लोगों का पलायन ही नही करवा रही है बल्कि लोकतंत्र का भी पलायन हो रहा है। लोकतंत्र के पलायन का मतलब है, प्रभु वर्ग की तानाशाही। या कहें तंत्र के आगे लोकतंत्र का घुटने टेकना । यह ऐसा वातावरण बनाती है, जहां आरोपी को साबित करना होता है कि वह दोषी नहीं है। दोष लगाने वाले को कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती । लोकतंत्र की नयी परिभाषा में संसद और संविधान के साथ बाज़ार और मुनाफा भी जुड़ गया है। इसलिये लोकतंत्र के पलायन के बाद नेता के साथ साथ बाज़ार चलाने वाले व्यापारी भी सत्ता का प्रतीक बन रहा है। उसके आगे मानवाधिकार कोई मायने नहीं रखता।
पिछले दो दशक के दौरान बिहार, उत्तरारखंड, छत्तीसगढ, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में दो लाख से ज्यादा लोग मानवाधिकार हनन की चपेट में राजनीतिक प्रभाव की वजह से आए। यानी राजनीति ने अपना निशाना साधा और आम आदमी की पुलिस-प्रशासन ने सुनी नहीं। अदालत में मामला पहुंचने पर आम नागरिक के खिलाफ हर तथ्य उसी पुलिस प्रशासन ने रखे, जो सिर्फ नेताओं की बोली समझ पाते हैं। इन छह राज्यों में करीब पचास हजार मामले ऐसे हैं, जिनमें जेल में बंद कैदियो को पता ही नहीं है कि उन्हें किस आरोप में पकड़ा गया ? ज्यादातर मामलों में कोई एफआईआर तक नहीं है। या एफआईआर की कॉपी कभी आरोपी को नहीं सौपी गयी। यह मामला चाहे आपको गंभीर लगे लेकिन जिन राज्यों से लोकतंत्र का पलायन हो रहा है, वहां यह सब सामान्य तरीके से होता है। भुक्तभोगियों की त्रासदी उन्हीं के मुंह से सुनिये, तब तंत्र के आगे देश के लोकतंत्र की बेबसी समझ में आयेगी ।
छत्तीसगढ का शहर भिलाई । जेल के अंधेरे में नब्बे दिन काटने के बाद अजय टीजे को अपने उस शहर में रोशनी दिखायी नहीं दी, जहां उन्होंने दस साल काटे । जेल क्यों गया। घर से जब पुलिस पकड़ कर ले गयी तो पुलिस ने कुछ नहीं कहा। अब जेल से छुटा है तो यह सब किसे बताये । जो अपने संगी - साथी - सहयोगी थे वह अजय टीजे के पास इसलिये नहीं आ रहे है कि पुलिस उन्हे भी गिरफ्तार कर जेल में ठूस देगी। फिर उनकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं होगा । अजय की पत्नी शोभा और बेटे अमन को भी भिलाई में कोई छत नसीब नहीं हुई, जब अजय जेल में था । अजय को जमानत इस शर्त पर दी गयी कि वह हर दूसरे सोमवार को पुलिस थाने में अपने होने का सबूत देता रहेगा । यानी छत्तीसगढ में अभिव्यक्ति के लिये भी अजय को जगह नहीं मिली । अजय 12 अगस्त को दिल्ली आया, जहा लोकतंत्र बरकरार है । दिल्ली पहुंच कर अजय ने बताया कि ज़मानत मिलते ही पुलिस ने धमकी दी थी- खबरदार किसी से कुछ न कहना । मीडिया के पास तो बिलकुल नहीं जाना । अजय केरल का है और साठ के दशक में उसके चाचा भिलाई आए । उन्होंने भिलाई स्टील प्लांट के बाहर चाय की दुकान लगा ली । फिर पिता नौकरी के सिलसिले में नब्बे के दशक में भिलाई आये तो अजय फिर छत्तीसगढ का ही होकर रह गया । फोटोग्राफी से जिन्दगी की गाड़ी शुरु करने वाले अजय की ज़िन्दगी में कई मोड़ आये, लेकिन गरीबी की वजह से बच्चों के न पढ़ पाने का दर्द उसे सालता रहा। आखिर में दस-बारह बच्चों को खड़िया स्लेट दे कर उसने पढ़ाने की ठानी । गड़बड़ी वहीं से शुरु हुई । सामाजिक संगठनों से जुड़ा। मानवाधिकार संगठन और कार्यकत्ताओं से मिला । कथित लोकतंत्र की तानाशाही या कहे लोकतंत्र का पलायन यही से उभरा । सामाजिक कार्यकर्त्ता या मानवाधिकार कार्यकर्त्ता राज्य की गलत नीतियों पर उंगुली उठायेगे ही । फिर उनसे अजय टीजे की मुलाकात ने नया रंग भरा । क्योंकि अजय आदिवासी गरीब बच्चों को पढ़ा रहा था। तो पुलिस की नज़र में अजय चढ़ गया । विकास का जो खाका छत्तीसगढ सरकार ने खींचा है, उसमे अजय फिट बैठता नही है । 5 मई को पुलिस ने अजय के घर का दरवाजा खटखटाया । कम्प्यूटर, किताब, खडिया, स्लेट समेत अजय को भी पुलिस ने जीप में डाला और बंद कर दिया । 48 घंटे बाद अदालत में पेश किया गया । लेकिन अजय को नहीं बताया गया कि उसे किस आरोप बंद किया जा रहा है । यहा तक कि 93 दिन जेल में बंद रहने के बाद जब जमानत दी गयी, तब भी आरोप की जानकारी अजय को नहीं मिली । कानूनी कागज पर अजय को राष्ट्रविरोधी जरुर बताया गया और राज्य के विशेष कानून के तहत गिरफ्तारी दिखाते हुये गैर कानूनी कार्यों में संलग्न होने का अरोप जरुर लिखा गया । लेकिन आरोप की जानकारी आज भी अजय को नहीं है ।
महाराष्ट्र का जिला गढ़चिरोली। इसी जिले का है मनकु उइके । जिसे जन्म से ही पता नही कि देश स्वतंत्र है। यहा कानून का राज चलता है । जनता की चुनी सरकार काम करती है।
1993 में जब तीन साल का था, तब पिता रेणु केजीराम उइके को पुलिस पकड़ कर ले गयी । मनकु पांच साल का हुआ तो जेल में पिता की मौत हो गयी इसकी जानकारी उसे एक साल बाद यानी 1996 में मिली । उसके बाद से बारह साल बीत चुके हैं, और पहली बार वह दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के चुनाव में वोट डालेगा । अब उसकी उम्र 18 साल हो चुकी है । लेकिन बचपन से लेकर अभी तक उसने अपने घर पर सिर्फ खाकी वरदी का रौब देखा है । पुलिस-सुरक्षाकर्मी जब चाहे उसके घर में घुसते हैं, उसके परिवार के किसी ना किसी सदस्य को मनमानी तरीके से थाने ले जाते । कई कई दिन तक बंद कर देते । मनकु किससे शिकायत करे, यह उसे आज तक समझ में नहीं आया । 5 अगस्त को वह अपने एक साथी के साथ दिल्ली आया । लोकतंत्र की खुशबू वाले शहर दिल्ली में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दफ्तर है, वहीं तकलीफ बताने से शायद पुलिस का खौफ उसके घर में नहीं होगा । यही सोच कर चन्द्रपुर के वकील एकनाथ साल्वे की चिट्टी लेकर मनकु दिल्ली पहुंचा । वकील सालवे उनके पिता रेणु केजीराम उइके के भी वकील थे । मनकु के मुताबिक उनके पिता को नक्सलियों का हिमायती बताकर टाडा के तहत अक्तूबर 1993 में गिरफ्तार किया गया । टाडा की धारा 3,4,5 लगायी गयी और आईपीसी 307,334,353,435 और आर्म्स एक्ट 3/25 दर्ज की गयी । लेकिन रेणु केजीराम उइके की मौत 20 फरवरी 1995 को नागपुर जेल में हो गयी । मौत की जानकारी देने पुलिसकर्मी ही घर पहुंचे थे । गढ़चिरोली के सावरगांव के घर में तब पांच साल के मनकु को कुछ धुंधला सा याद है कि कैसे पुलिस घर पर आयी और मां उसके बाद रोने लगी । लेकिन मां को तीन दिन बीद ही पुलिस पकड़ कर ले गयी । मनकु उइके के मुताबिक उस दिन से लेकर आजतक पुलिस लगातार उसके और गांव में जिसके मन चाहे उसके घर पर जाती है । दरवाजा खटखटाती है । मनचाहे पुरुष -महिला को पकड़ कर आरोप लगाती है । नागपुर मुख्यालय में अपनी उपल्ब्धि की जानकारी यह कहते हुये देती है कि खूखांर माओवादी उसकी गिरफ्त में हैं । मनकु इससे तंग आकर गढ़चिरोली से सटे चन्द्रपुर जिले में नौकरी करने आ गया । लेकिन पुलिस ने उसे वहां भी नहीं छोड़ा । मनकु समझ नही पाता कि वह अपनी जिन्दगी कैसे जिये । आदिवासियों में शादी जल्दी हो जाती है। लेकिन पुलिस के खौफ से उसने शादी भी नहीं की । पिता की मौत जेल में हुई । उसकी भरपायी से लेकर अपने जीने के हक का कच्चा चिट्टा लेकर मनकु दो बार मानवाधिकार आयोग के दरवाजे से भी वापस लौट आया । पिता मरे थे तो डॉक्टरी रिपोर्ट में कहा गया था आदिवासी जेल के वातावरण में रह नही सका, इसलिये मर गया । मनकु को दिल्ली में मानवाधिकार आयोग के एक अधिकारी ने समझाया तुम्हारी भाषा कोई समझ नहीं पाता इसलिये वकील की लिखी अर्जी छोडकर चले जाओ । मनकु उइके अर्जी छोड कर जा चुका है।
उत्तर प्रदेश का शहर है सोनभद्र । इसी शहर का है विनोद । विनोद ने जिस शहर में बचपन गुजारा । जहां के स्कूल में पढ़ाई की,जहां माता-पिता की अंगुली पकड कर जीने का सलीका सिखा । उसी शहर में आज उसका दर्द सुननेवाला कोई नहीं है । पिछले तीन साल से जेल में बंद था । विनोद को पता नहीं कि किस आरोप में उसे पकड़ा गया । उसे इतना जरुर पता है कि पांच साल पहले उसकी नौकरी इसलिये छूट गयी कि जिस निजी कंपनी में वह काम करता था, उस कंपनी को बेच दिया गया । हर्जाने की मांग उसने भी की । विरोध प्रदर्शन के बीच पुलिस ने गोली चलायी । तीन मरे, चौबिस घायल हुये । कई घायलों को मरा हुआ बता कर कंपनी ने पल्ला झाडा । उसमे विनोद भी है । 2003 में कंपनी के दस्तावेजो में मृत विनोद 2004 में पहली बार दिल्ली पहुचा था । राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दरवाजे पर गया । यह बताकर आया कि कैसे उसकी नौकरी गयी । कैसे उसे हर्जाना नहीं मिला । कैसे उसे मरा हुआ मान लिया गया है । आयोग ने वायदा किया था कि वह विनोद को जल्द ही जीवित कर देगी और उसे हक दिलायेगी । लोकतंत्र की सौंधी खुशबू लेकर विनोद सोनभद्र लौटा तो गरुर में था । लेकिन उसके शहर से लोकतंत्र का पलायन हो चुका है, उसका एहसास उसे सात दिनों के भीतर ही हो गया । पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया । विनोद को तो कुछ पता ही नहीं है कि आरोप क्या है। लेकिन जनवरी 2008 में जब वह जेल से जमानत पर छूटा तो उसे हर हफ्ते थाने में हाजिरी देने का निर्देश दिया गया । विनोद को लगा अब वह कंपनी से हर्जाने की मांग कर सकता है । लेकिन उसकी मांग फिर से भारी पड़ गयी, क्योकि जिस जमीन पर बनी कंपनी में वह काम करता था, संयोग से वह जमीन थर्मल पावर प्लांट के लिये किसी ने खरीद ली । कंपनी की बिल्डिंग तोड़ी जा चुकी है । लेकिन जो कंपनी ठीक पहले तक काम कर रही थी, उसके कर्मचारी किसी हर्जाने की मांग न करे, उसके लिये नये मालिक ने स्थानीय नेता और पुलिस को ठेका दे दिया । ऐसे में अचानक पुरानी कंपनी के कर्मचारी विनोद को पुलिस बर्दाश्त नहीं कर पायी और पहले उसकी जमकर धुनायी हुई और फिर जेल में बंद कर दिया गया । आरोप क्या लगाया गया, इसकी जानकारी उसे न तब दी गयी न ही जुलाई के महीने में रिहायी के वक्त । हां, पहली बार राष्ट्रहित के खिलाफ विनोद की हरकतों को माना गया । गैरकानूनी संगठनो के साथ उसके ताल्लुकात जुड़े । माओवादियों के साथ रिश्ते रखने का आरोप उस पर जरुर लग गया । लेकिन कैसे रिश्ते हैं, उसने क्या ऐसा किया जिसके बाद पुलिस ने यह आरोप उस पर लगाया, उसकी जानकारी उसे आज भी नहीं है । इसी खाके-चिट्टे को लेकर विनोद एकबार फिर राष्टीय मानवाधिकार आयोग के पास पहुंचा है । लेकिन इस बार वह आयोग से गांरटी चाहता है कि जब वह गांव लौटे तो फिर पुलिस उसे गिरफ्तार कर जेल में न ठूंस दे । मानवाधिकार आयोग ने भरोसा दिलाया है, गारंटी नहीं । इसलिये विनोद सीधे सोनभद्र नही लौटा है, बल्कि लखनऊ में राज्यमानवाधिकार आयोग को बताने गया है कि वह सोनभद्र लौट रहा है।
सवाल यही है कि देश में जीने के हक को कोई नहीं छिनेगा, इसकी गांरटी देने वाला भी कोई नहीं है । और लोकतंत्र के पलायन के बाद अब आरोपी को साबित करना है कि वह दोषी नहीं है। राज्य की कोई जिम्मेदारी नागरिकों को लेकर नहीं है।
Monday, August 18, 2008
[+/-] |
आक्रोष को आवाज देती एक कविता |
बंधु, यह तो तय है कि सवाल और आक्रोष से रास्ता भी नहीं निकलता और समाधान भी। लेकिन यह कैसे संभव है कि हम सवालों को खड़ा ही न करें? चर्चा रोक कर मैं आपको एक कविता बताता हूँ... इसका महत्व किसी भी आंदोलन की जमीन पर उपजे शब्दों की तर्ज पर हो सकता है। मुझे इस कविता की प्रति 1991 में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने दी थी। दुर्भाग्य से दो महीने पहले उसकी मौत हो गयी। मौत की वजह उसका अपना जुनून था। इस जुनून की वजह समाज के हालात से समझौता न करने की उसकी समझ थी या कहें एक बेहतर समाज को बनाने का सपना। खैर, कविता दक्षिण अफ्रीका के फेजेका मैकोनीज की है - मत रो माँ
मत रो माँ
ये तुम्हारा कैसा हठ है, दुराग्रह है,
बिछुड़ने का यह वक्त कितना कठिन है,
मेरे सामने बिखरी चुनौती भरी जिंदगी मुझे पुकार रही है,
मुझे जाना ही पड़ेगा, मैं जरुर जाऊंगी,
इसलिये मेरी माँ, मेरी प्यारी माँ मत रो।
देखो मुर्गे ने बांग दे दी है,
दूर से आती रोशनी की किरणों पर मेरा नाम लिखा है!
मैं उस लक्ष्य की ओर जा रही हूँ, जो हम सबका है, तुम्हारा भी।
मेरे साथी पहले ही जा चुके हैं,
उनमें से कुछ कभी नहीं लौटेंगे।
हमारे बगीचे के वे प्यारे भोले गुलाब और दूसरे फूल,
मेरे स्कूल के साथी, सारे साथी स्कूल के मैदान में
हमारे महान पुरखों की तरह लड़ते-लड़ते गिर गये।
वे सब मुझे पुकार रहे हैं,
उनकी पुकार में करुणा नहीं है,
मुझे अपने आंसुओं की जंजीर में मत बांधो।
देखो दूर, बहुत दूर युवाओं की टोली मेरा आह्वान कर रही है
मत रोको माँ, मुझे मत रोको, मुझे जाने दो।
इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर
मैंने अपनी छोटी-सी जिन्दगी में केवल आंतक
और दहला देने वाली हिंसा देखी है।
अगर वक्त मुझे यूँ ही अनदेखा करके चला गया
तो भला मैं लंबी जिन्दगी का क्या करुंगी।
मेरे बहुत से साथी भोर से पहले ही
रोशनी की तलाश में मारे जा चुके हैं।
मुझे भी जाना होगा,
मैं नहीं चाहती मेरा अजन्मा बच्चा
वह सब देखे और भोगे,
जो मैंने देखा और भोगा है।
अपना ध्यान रखना माँ।
Saturday, August 16, 2008
[+/-] |
आपके आक्रोष-बेचैनी में बेबसी क्यों है? |
आपके जवाब को देखकर मुझे लगता है मुद्दों को लेकर एक आक्रोष, एक बेचैनी हर किसी में है। लेकिन यह आक्रोष, यह बेचैनी भी कुछ दूर चलने के बाद हाँफने लगती है। आपको लगता होगा सवालों की फेहरिस्त तो इस देश में खासी लंबी है, लेकिन समाधान गायब है। सतीश संचयन, संजय शर्मा, जितेन्द्र भगत, अनिल, सुनीता, अनुराग, विपिन – आप जो सवाल उठा रहे हैं, उससे ज्यादा सवाल हमारे सामने किसी भी चाय-पान के ठेले पर चर्चा के दौरान उठ जाते है। लोगों में नेताओं और सरकार को लेकर आक्रोष इस हद तक है कि अगर बहस के दौरान कोई सामने आ जाये तो खैर नही। लेकिन मेरा सवाल यहीं से शुरु होता है। व्यवस्था - सरकार से दुःखी होकर आक्रोष से जलने वाले किसी भी शख्स को अगर इसी सरकार या इस तबके में शामिल होने का मौका मिलेगा, तब वह क्या करेगा? क्या तब लोकहित-जनहित का सवाल उसके भीतर घुमड़ेगा या फिर वह भी व्यवस्था में शामिल हो जायेगा? दूसरी बात कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, अगर सरकार या व्यवस्था आपके आक्रोष को राज्य के खिलाफ मान ले और कानूनी तौर पर आपके खिलाफ कार्रवाई करने लगे। अपने माध्यमों से वह आपको देशहित के खिलाफ बताये। तब आप क्या करेंगे? जाहिर है जिस जमीन पर आप खड़े हैं उसमें आपका आक्रोष, आपका गुस्सा, आपकी बैचेनी सरकार को तभी तक पंसद आयेगी जब तक सरकार के लोकतांत्रिक होने पर सवाल ना उठे। दरअसल यवतमाल हो या बुंदेलखंड या छत्तीसगढ़ या झारखंड - आपको समझना होगा कि जहाँ इस तरह के संकट हैं... मतलब किसान आत्महत्या कर रहा है, दो जून की रोटी जुगाड़ना कई जीवन जीने जैसा हो, या फिर आँखों के सामने भ्रष्ट या अपराधियों की मनमानी पर लोकतंत्र के हर खंभे को नतमस्तक होते देखा जा रहा हो, वहाँ लोकतंत्र का सवाल भी गौण है।
ऐसे में हम-आप जो बहस कर रहे हैं उससे निराश ना होइये, क्योंकि हमने 15 अगस्त को प्रधानमंत्री की उपलब्धियों को 60 मिनट तक सुना और ढेरों मित्र-बंधुओ के राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत एसएमएस भी पढ़े हैं। आजादी के दिन न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम में हँसी-ठठ्ठे में देश के सच को भुलाकर मुनाफा कमाने के नये-नये तरीके ईजाद होते भी देखे हैं। सवाल है हम पहले देश के सच को भी तो समझ लें। चूँकि बहस से एक बेचैनी उभरी है, तो मैं आप लोगों को अगली पोस्ट में उस सच से भी वाकिफ कराता हूँ, जिसे आप जानते-समझते भी होंगे। लेकिन किसी भुक्तभोगी की त्रासदी क्या होती है, खासकर तब जब सामने लोकतंत्र बेबस नजर आ रहा हो। फिर हम इस मुद्दे को खंगालेंगे कि रास्ता जाता कहाँ है।
Wednesday, August 13, 2008
[+/-] |
कर्ज लेकर बच्चों को पढ़ाने को मजबूर हैं यवतमाल के किसान |
परेश टोकेकर, आपने ये सवाल सही उठाया कि 2020 तक भारत को विकसित बनाने का जो सपना दिखाया जा रहा है, उसके इर्द-गिर्द हर क्षेत्र में जो नीतियां अपनायी जा रही हैं, वह किसान-मजदूर को मौत के अलावा कुछ दे भी नहीं सकती। यवतमाल जैसे पिछडे जिले में कागजों को विकास के नाम पर कैसे भरा जा रहा है, इसका नज़ारा शिक्षा के मद्देनजर भी समझा जा सकता है।
दरअसल, इस साल दसवीं की परीक्षा देने वाले सभी बच्चों को पास कर दिया गया। अब ग्यारहवी में नाम कॉलेज में लिखाना है, तो इतने कॉलेज जिले में हैं नहीं, जिसमें सभी बच्चे पढ़ सकें। कॉलेज खोलने का लाइसेंस करोड़ों में बिकने लगा और बच्चो को एडमिशन के लिये हजारों देने पड़ रहे हैं। यवतमाल के सबसे घटिया कालेज संताजी कालेज में ग्यारहवी में एडमिशन के लिये बीस हजार रुपये तक प्रबंधन ले रहा है। खास बात ये कि कॉलेज में सिर्फ दो कमरे है। पढ़ाने के लिये पांच शिक्षक हैं। चूंकि यवतमाल में 90 फीसदी दसवीं पास किसान और खेत मजदूर के वैसे बच्चे जिन्हे कहीं एडमिशन नही मिल रहा है, इन्हें अब बच्चों को पढ़ाने के लिये कर्ज लेना पड रहा है। कॉलेज खोलने का जो लाइसेंस दिया भी जा रहा या जिनके पास पहले से कॉलेज है, संयोग से सभी नेताओ के हैं। कांग्रेस-बीजेपी-एनसीपी पार्टी के नेताओं के ही कॉलेज है। संयोग ये भी है कि बैंकों से हटकर कर्ज देने वाले भी नेता ही हैं। और किसानो की खुदकुशी पर आंसू बहाने वाले भी नेता ही हैं।
सवाल है इस चक्रव्यूह को तोडने के लिये अभिमन्यू कहां से आयेगा? लेकिन चक्रव्यूह की अंतर्राष्ट्रीय समझ कितनी हरफनमौला है, यह भी यवतमाल में समझ में आया। दरअसल, इसी दौर में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य भी आये और अमेरिकी सीनेट का प्रतिनिधिमंडल भी पहुंचा। खास बात विश्व बैक के प्रतिनिधिमंडल की रही, जो लगातार आईसीयू में पड़े किसानों की हालत को समझने के लिये यह सोच कर उनकी नब्ज पकडता रहा कि एड्स की तुलना में किसानो का खुदकुशी कितना बड़ा मामला है। क्या एड्स की तर्ज पर किसानो के लिये कोइ राशि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर दी जा सकती है? स्थानीय लोगों के मुताबिक जो भी गोरे आते थे, वह दो सवाल हर से पूछते। परिवार में किसान की मौत के बाद खेती कौन करता है और खेती करने के लिये कौन कौन सी तकनीक उपयोग में लायी जाती है। तकनीक कुछ भी नहीं और ज्यादातर महिलाओ को किसानी करते सुन कर गोरो का यह कमेंट भी यवतमाल के अलग अलग गांव में सुना जा सकता है। विमेंस आर वैरी ब्रेव। यहां महिलाएं बहुत बहादुर है। त्रासदी देखिये यह जबाव विधवा हो गयी किसान महिलाओं के लिये है। राहुल की कलावती भी उनमें से एक है।
Monday, August 11, 2008
[+/-] |
कलावती के गांव में जिन्दगी सस्ती है, राहुल गांधी के पोस्टर से |
जालका गांव। देश के बारह हजार गांवों में एक। लेकिन पिछले तीन साल में सबसे अलग पहचान बनाने वाला गांव। यह राहुल की कलावती का गांव है। यह उस यवतमाल जिले का गांव है, जहां आजादी के साठ साल बाद भी रेलगाडी नहीं पहुची है। लेकिन किसानों की आत्महत्या ने दुनिया के हर हिस्से से लोगो को यहां पहुंचा दिया। राजनीति का केन्द्र अगर यवतमाल बना तो अंतर्राष्ट्रीय मंच के लिये यवतमाल ऐसी प्रयोगशाला भी बना, जहां विकसित देश और उनके मंच यह टटोलने आये किसी सबसे बडे बाजार में तब्दील होते भारत में यवतमाल सरीखे किसानो के गांव के जिन्दा रहने का राज क्या है या फिर वह कौन सी स्थितियां हैं, जिससे ऐसे गांव आईसीयू में पहुच गये हैं। संयुक्त राष्ट्र के एक प्रतिनिधिमंडल से लेकर अमेरिकी सीनेट के सदस्यो की टीम और विश्व बैंक से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तक के सदस्य आईसीयू में पहुंचे यवतमाल के किसानो की आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों को टटोलने यवतमाल पहुंचे। इन अंतर्राष्टीय मंचो के सामाजिक-आर्थिक डॉक्टरों की रिपोर्ट का इंतजार यवतमाल से लेकर दिल्ली तक को है। लेकिन संसद के गलियारे से जैसे ही राहुल गांधी ने कलावती और शशिकला का जिक्र किया ,वैसे ही कलावती के गाव जालका ने यवतमाल के भीतर के एक हजार से ज्यादा गांवो की उस त्रासदी को भी सामने ला दिया, जिसमें प्रयोगशाला के तौर पर हर गांव का इलाज किसानो को गिनीपिग बना कर किया जा रहा है।
कलावती के गांव जालका के खेतो में कदम रखते ही आपको चार-साढे चार फीट के गड्डे मिलेगे। मन में सवाल उठेगा कि खेतो के बीच में गड्डो का मतलब। दरअसल, प्रयोगशाला में प्रयोग की इजाजत किसी को भी है तो श्री श्री रविशंकर भी इससे क्यों चूके? वह भी किसानो के अंदर खुदकुशी करने की बैचेनी को शांत करने जालका पहुंचे। वहां खेत के अंदर तालाब। और तालाब के पानी से किसानो के मन शांत करने की थ्योरी को हकीकत में उतारने की सोच कर भक्तो को इसका अनुसरण करने को कहा। जबतक श्री श्री रविशंकर गांव में रहे, तब कर गड्डे चार- साढ़े चार फीट के ही किये जा सके तो बस वह गड्डे बरकरार है। अब तालाब इतना छोटा तो होता नही, इसलिये बरसात हुई तो इन गड्डो में पानी भर गया। जिससे गड्डे भरने में भी मुश्किल और खेती करने में भी परेशानी।
खेतो की पगडंडी पार करते करते गांव के रिहायशी इलाको में कदम रखते ही राजनीतिक प्रयोगशाला का अंदेशा मिलने लगता है। दिल्ली से चाहे सवाल राहुल की कलावती को लेकर हो, लेकिन जालका गांव में मामला उलट है। वहा राहुल की कलावती नहीं बल्कि कलावती के राहुल है। राहुल का बडा सा पोस्टर बेहद मासूमियत से कहीं घास - फूस तो कहीं गोबर लीपी दीवार पर किसी भी बच्चे की तरह लहरा- लहरा कर समूचे गांव को रोशन किये हुये है। तीन गुना पांच फीट का सबसे बडा पोस्टर चारों कोनों पर रस्सी से बांधा गया है। ज्यादा तेज हवा चलने पर पोस्टर की कोई रस्सी टूट जाती है तो कलावती को बताने के लिये गांववालों का तांता लग जाता है। और मिनटों में पोस्टर को फिर से टाइट रस्सी से बांध दिया जाता है। राहुल गांधी के कुछ छोटे पोस्टर बरसात में दीवारों से उखड कर पानी में समा गये। लेकिन कलावती के राहुल से गांववालो को ऐसी आस है कि गांव के कुछ दूसरे किसान कटे-फटे-भीगे पोस्टरों को भी अपने कलेजे से लगाये बैठे है कि कोई दिल्ली दृष्टि उन पर पड़े तो उनका भी बेडा पार हो। दरअसल, सुलभ इंटरनेशनल ने राहुल की कलावती को पांच लाख रुपये दिये। जिस पर राज्य के कांग्रेसियो ने ढिढोरा पीटना शुरु किया कि यह रकम तो उन्होंने ही दी है। गांववाले जब स्थानीय कांग्रेसियों के पास पहुचे कि हमें भी रुपये दो तो नेताओ ने कहा नेता रुपये कब से बांटने लगे। गांववालो को भरोसा नहीं हुआ। उन्होने कलावती से पूछा। कलावती ने जबाब दिया यह तो राहुल की महिमा है। मेरे राहुल की महिमा। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष ने भी कह दिया कि राहुल गांधी कलावती का नाम ना लेते तो उन्हे पैसे कौन देता। यानी पैसे कोई भी बांटे, सबके पीछे राहुल है। अब राहुल तो सबके हो नहीं सकते , वह तो कलावती के राहुल है। लेकिन राहुल के पोस्टर से ही कुछ कल्याण हो जाये इसलिये पोस्टर का कतरा कतरा जालका गांव में समाया हुआ है। जो सबसे बड़ा पोस्टर है, वह कपडे और प्लास्टिक से मिल कर बना है, जिसको बनवाने पर एक पोस्टर की कीमत पच्चतर से सौ रुपये होगी। अगर समूचे गांव में पड़े छोटे बड़े पोस्टर की कीमत परखे तो करीब तीन से पांच हजार रुपये तो होगी ही। यह पोस्टर गांव में जिन दीवारो के आसरे टंगे है, उन दीवार की कीमत कौडियों से कम की है।
समूचे जालका गांव में ग्यारह सौ सोलह घर है। जिसमें से महज सौ घर ही ऐसे हैं, जो ईंट और सीमेंट के गारे से बने है। करीब दो सौ घर ऐसे हैं, जिसमें ऊंटों को मिट्टी के गारे से जोड़ कर बनाया गया है। और बाकि आठ सौ से ज्यादा घर बांस-पुआल-खपरैल-मिट्टी-गोबर से बने हुये है। इन कच्चे घरों को बनाने में करीब पांच सौ से हजार रुपये खर्च होते है। इन घरो के टूटने या गिरने के स्थिति में इन घरो में रहने वाले कितने टूट जाते है , इसका एहसास मोरघडे के परिवार को देखकर भी समझा जा सकता है। उसका घर बरसात और हवा के थपडे में टूट गया जिसे बनवाने का खर्चा आता है डेढ सौ रुपये। लेकिन इतना पैसा भी इस परिवार के पास नहीं है। किसी तरह राहुल गांघी के उस पोस्टर को इस परिवार ने जुगाड़ लिया जो कपडे और प्लास्टिक से मिलकर बना है, उसी को जोड़ जोड़ कर दीवार के बदले टांग दिया। कलावती को सुलभ इंटरनेशनल द्रारा पैसे दिये जाने के बाद जब राज्य स्तर के कांग्रेसी नेताओ ने गांव का दौरा करने का प्रोग्राम बनवाया तो एक स्थानीय कांग्रेसी कार्यकर्ता ने मोरघडे के घर से राहुल को पोस्टर उखाड दिया। जब मोरघडे ने विरोघ किया तो कांग्रसी कार्यकर्ता ने समझाया की टाट में पैबंद की तरह राहुल के पोस्टर का इस्तेमाल न करे। लेकिन मोरघडे ने जब कई दूसरी जगहो पर राहुल के लगे पोस्टरो का जिक्र किया तो जिसमें कलावती के घर के बाहर लगे फटे पोस्टर का भी जिक्र आया तो कार्यकर्ता ने समझाया अभी मामला राहुल की कलावती का है ना कि कलावती के राहुल का है। बस समझौता हुआ और दो दिन के लिये मोरघडे के घर को फटी-चिथडी बोरियो से ढका गाया और पोस्टर को एक ऊंचे मचान पर लटका दिया गया। नेता लौट गये तो पोस्टर दोबोरा मोरघडे को लौटा दिया गया।
ऐसा भी नही है कि जालका गांव में सिर्फ राहुल के ही पोस्टर है। जबसे राहुल के मुंह से कलावती का नाम निकला है, तभी से गांववालो को लगने लगा है कि दिल्ली से आने वाले नेताओ का पोस्टर घर पर लगाने से ही तकदीर बदल सकती है। संयोग से जालका गांव में तो सिर्फ राहुल गांधी आये लेकिन यवतमाल में हर नेता पहुंचा है। क्योंकि विदर्भ के किसानो का असल कब्रगाह यवतमाल ही बना है। यहां सबसे ज्यादा किसानो ने खुदकुशी की है। पिछले दस साल में समूचे महाराष्ट्र में 48 हजार किसानों ने आत्महत्या की जिसमें सिर्फ यवतमाल के करीब साढे पांच हजार किसान शामिल हैं। यही वजह है कि 2004 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के वक्त सोनिया गांधी ने दौरा किया क्योंकि वाजपेयी सरकार के राज में 16 हजार से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की थी। लेकिन यह उस वक्त किसी किसान ने नहीं सोचा था कि मनमोहन सरकार को चार साल में 17 हजार से ज्यादा किसान महाराष्ट्र में आत्महत्या कर लेंगे। खैर सोनिया के बाद 2006 में मनमोहन सिंह यवतमाल गये। फिर बीजेपी अध्यक्ष ने यवतमाल पहुच कर किसान यात्रा निकाली तो वामपंथियो ने किसान जत्था निकाला। हर राजनीतिक दल का पोस्टर यवतमाल में देखा जा सकता है। नेताओ की बड़ी बड़ी तस्वीर वाले पोस्टर भी इस इलाके में चिपके पडे है लेकिन सबसे मजबूत पोस्टर राहुल गांधी का है इसमें कोइ बहस की गुजाइश नहीं। यवतमाल में करीब 8700 गांव है। जिसमें सिर्फ तेरह स्वास्थय केन्द्र ऐसे है, जहा जाने पर इलाज हो सकता है या कहें दवाई मिल सकती है। यूं हर हर तेरह गांव पर एक स्वास्थ्य केन्द्र सरकारी दस्तावेज में मौजूद है। लेकिन यवतमाल की त्रासदी यह भी है कि किसानों की खुदकुशी के मामले में अधिकतर किसानों को मरने जीने के बीच अस्पताल की चौखट तक उनके साथी ले भी गये लेकिन सिर्फ दस मामले ही ऐसे है जिसमें किसान की जान बच गयी। संयोग से कलावती के पति के खुदकुशी करने के छह महीने पहले अगस्त 2006 में उसके पड़ोसी ने भी खुदकुशी करने की कोशिश की थी, लेकिन शरीर के अंदर जहर जाने से पहले उसे बचा लिया गया। राहुल गांधी कलावती के घर पर आये तो उसकी तकदीर बदल गयी और कलावती के पड़ोसी को मलाल हो कि अगर उसकी जान भी चली जाती और राहुल गांधी उसके घर भी आ जाते और उसके परिवार के दिन भी फिर जाते।
Saturday, August 9, 2008
[+/-] |
चंद सवालों के जवाब |
ब्लॉग की दुनिया में अपने पहले पोस्ट पर कई प्रतिक्रियाएं देख अच्छा लगा कि आखिर मुद्दों पर बहस शुरु होने की यहां संभावना तो है। पहली पोस्ट में आए कमेंट में कई सवाल हैं। मसलन, पत्रकार राजनीति का टूल बन रहे हैं। दरअसल,ब्लॉग,चैनल और न्यूज पेपर सभी इनफोरमेशन के टूल हैं,ये कोई अल्टीमेट गोल नहीं है। लेकिन, बड़ी तादाद में पत्रकार इन्हें अपना गोल मान रहे हैं,और जो मान रहे हैं,वहीं राजनीति का टूल बन रहे हैं। खतरा यही है। राजनीति और राजनेताओं के लिए मीडिया एक टूल बनता जा रहा है,जबकि मीडिया वाले मीडिया के तमाम माध्यमों को जरिया न मानकर उद्देश्य मान रहे हैं। इसलिए, आज का मीडिया पैसे से संचालित हो रहा है। मीडिया बिजनेस बन गया है। पत्रकारीय अंदाज में मीडिया का विकास नहीं हो पा रहा है अब।
अनुनाद सिंह ने कहा कि मीडिया भ्रष्ट है। हमारा कहना है कि ये एक इंटरपिटेशन हो सकता है। लेकिन, हमारा कहना है कि मीडिया टूल बनता जा रहा है, जो बड़ा खतरा है। भ्रष्ट चीज़ सुधर भी सकती है, लेकिन आप जरिया बन जाते हैं, फिर ऐसा नहीं हो सकता।
अफलातून, अजीत और यतेन का तर्क है कि ब्लॉग पर माइक क्यों लगाया है? दरअसल,माइक बोलने को प्रेरित करता है, उन्हें भी जो नहीं बोलते। माइक एक प्रतीकात्मक चिन्ह है। वैसे भी,माइक का इजाद इसलिए हुआ है कि ज्यादा लोग आपकी बात सुनें। वैसे, अगर आपको और हमें बहस के बाद लगेगा कि माइक भ्रष्ट मीडिया का प्रतीक है तो हम हटा देंगे। लेकिन, सोचिए आप भी कि इसे देना है या नहीं।
जहां तक अंशुमाली का सवाल है कि जनता की भागीदारी के बिना चीचें भष्ट नहीं होती। भाई, जनता कोई अलग नहीं है। हम-आप जनता है और नेता भी जनता है। लेकिन, संयोग से जो सिस्टम है, वो एक तबके के लिए है और एक तबके को ही प्रभावित कर रहा है। प्रभु वर्ग में घुसने की लालसा हर वर्ग में हो रही है। ये जो स्थिति है, उसमें हमको लगता है कि सिस्टम ने जनता और सत्ता को बांट दिया है या यूं कहें लाइन ऑफ कंट्रोल खींच दिया है। इसलिए जनता की भागीदारी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इस देंश में जो चीजें चल रही हैं, वो जनता के लिए हैं ही नहीं। सवाल यही था कि देश में अस्सी करोड़ जनता के लिए कोई नीति नहीं बन रही है और न उनका हित देखा जा रहा है। ऐसे में ,जिसे जनता समझ रहे हैं, उसे कोई देखने वाला नहीं। ऐसे में, मीडिया ने भी उससे दूरी बना ली है।
जहां तक स्टिंग ऑपरेशन की बात है और जो सवाल रंजन और संजय का है तो हमारा कहना है कि इसी भाषा का इस्तेवाल वो नेता कर रहे हैं, जो बिक रहे हैं, खरीद रहे हैं और मीडिलमैन हैं। वो भी यही कह रहे हैं कि स्टिंग ऑपरेशन न दिखाने के लिए कोई डील तो नहीं हुई। आपसे आग्रह है कि इस खतरे को समझना होगा। मीडिया को फोर्थ स्टेट बनाए रखना है या सब कुछ घालमेल कर देना है, इस बारे में हमें तय करना होगा। इसलिए, हमें उनकी भाषा से बचना होगा। उनकी भाषा का इस्तेमाल कर आप नेता नहीं बन सकते इसके लिए दूसरे गुर चाहिए। वो अपनी भाषा, हमारे-आप पर थोप कर मीडिया को घेरना चाहते हैं।
डॉ. अमर कुमार कहते हैं कि आप राजनीति ही बाचेंगे? राजनीति पर चोट करने के आसरे से बचा नहीं जा सकता। मीडिया नहीं बच सकता। संयोग से राजनीति को जनता से सरोकार बनाने थे, वो उसने छोड़ दिया। मेरा कहना है कि समाजिक पहलुओं को उठाते हुए उंगली तो राजनीति पर उठेगी ही, क्योंकि वो नीति निर्धारक है। इसलिए हम तो इससे बचेंगे नहीं। चिंता न कीजिए.....अगर देश में नायक नहीं है, और लीडरशिप गायब हो रही है और फिल्मों में हीरो हीरोइन गायब हो तो हम वहां भी आ जाएंगे। उस पर भी बहस करेंगे।
ये अजब बात है कि जो लोग जो अस्सी और नब्बे के दशक में अच्छा काम मीडिया में कर रहे थे, अच्छी राजनीति संसद में कर रहे थे। वो इस नए सिस्टम का हिस्सा बनते जा रहे हैं। समझिए इसको, क्योंकि इस देश को न तो राजनीति और न ही जनता चला रही है बल्कि कुछ और चला रहा है। हम इस पर भी चर्चा करेंगे।
इसकी शुरुआत करेंगे कलावती की बात कर। मैं फिलहाल राहुल की कलावती के गांव जालका में ही हूं। कल दिल्ली लौटूंगा तो बताऊंगा आपको कैसी है राहुल की कलावती और क्या है जालका गांव का हाल।
Friday, August 8, 2008
[+/-] |
स्टिंग ऑपरेशन देखने से पहले आँखे खोलिये, सच सामने है |
कहने को बहुत कुछ होता है। अख़बारों में लिखते हैं, चैनल के जरिए भी अपनी बात रखते हैं, लेकिन सोचने की प्रक्रिया लगातार जारी रहती हैं,लिहाजा कहने के लिए बहुत कुछ दिलो-दिमाग में उमड़ता घुमड़ता रहता है। ब्लॉगिंग के बारे में सुना था, सो अब इस मंच का इस्तेमाल करेंगे अपनी बात कहने में। खासकर वो मुद्दे, जिनसे नेता बचते हैं,सरकार बचना चाहती है,हम उन मुद्दों पर साफगोई से अपने विचार रखेंगे। साथ ही,उन तथ्यों को भी रखेंगे,जिन्हें सरकार और नेता छिपाना चाहते हैं। इसके अलावा राजनीति को केंद्रकर मीडिया, समाज और दूसरे कई अहम मसलों पर यहां भी कीबोर्ड पर उंगलियां दौड़ाएंगे। फिलहाल, बहस के लिए ब्लॉग पर पहली किस्त पेश है।
सांसदो की खरीद फरोख्त का स्टिंग ऑपरेशन अगर न्यूज चैनल ने दिखा भी दिया होता तो क्या लोकतंत्र पर लगने वाला धब्बा मिट जाता? जिस संसदीय राजनीति के सरोकार देश की अस्सी फीसदी लोगो से कट चुके हैं क्या वह जुड़ जाते? जिन सांसदो ने खुद की बोली लगायी होगी या दूसरे राजनीतिक दलों की देशभक्ति से प्रभावित होकर अपने ही दल का साथ छोड गये, क्या उनकी पार्टीगत सोच को दोबारा मान्यता दी जा सकती है? जो नेता सरकार गिराने या बचाने का ठेका लिये हुये थे, क्या उन्हे मिडिल मैन की जगह कोई दूसरा नाम दे दिया जाता? जिस तरह से स्टिंग ऑपरेशन को लेकर सभी राजनीतिक दल या सांसदो की खरीद फरोख्त में सामने आये तमाम नेता न्यूज चैनलो की स्वतंत्रता के कसीदे पढ रहे है, उनकी अपनी राजनीतिक जमीन किस खून से रंगी है, जरा इस हकीकत को देखिये तो रोंगटे खडे हो जायेगे।
सत्ता में रहते हुये की राज्य की धज्जियां उड़ाने वाले राजनीतिक दलों ने बीते दस साल में किन नीतियों के आसरे भारत भाग्य विधाता के नारे को बुलन्द किया। दस सालों का जिक्र इसलिये क्योकि इस दौर में देश के सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता का स्वाद चखा। पहले इन तथ्यों को रखें और नेता इस सवाल को उठायें कि मीडिया ने भी अपना धर्म नहीं निभाया, उससे पहले स्टिंग ऑपरेशन को लेकर मीडिया के उठाये सवालों पर संसद की पहल को ही समझ लीजिये। तहलका ने स्टिंग ऑपरेशन के जरिए देश के धुरन्धर राजनीतिक दलो के अग्रणी नेता-मंत्रियो की पोल पट्टी खोली थी कि कैसे देश को चूना लगाकार हथियारो की खरीद फरोख्त तक में गड़बड़ी होती है। देश की सुरक्षा कमीशनखोरी के आगे कैसे नतमस्तक हो जाती है। लेकिन स्टिंग ऑपरेशन चलने के बाद क्या हुआ? मीडिया अर्से बाद खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा था कि अब तो सांसद-मंत्रियो की खैर नही। इस लंबे-चौड़े स्टिंग ऑपरेशन को दिखाये जाने का पूरा मजा संसद ने भी लिया और उन राजनीतिक दलो ने भी, जो विपक्ष में थे। देश में कई दिनो तक भष्ट्राचार की पारदर्शी होती गंगा को लेकर बहस मुहासिब चलती रही। आम आदमी कहने लगा अब और क्या चाहिये सबूत। सांसद चेते और अपनी मान्यता बरकरार रखने के लिये संसद से मामला अदालत तक भी जा पहुचा लेकिन क्या कोई सासंद जेल पहुचा? किसी को सजा हुई? इसके बाद सांसदो के सवाल पूछने पर रुपया कमाने के तरीको को स्टिंग ऑपरेशन के जरिए मीडिया सामने लाया। इसमें हर राष्ट्रीय राजनीतिक दल का नेता घेरे में था। जनता की नुमाइन्दगी के बदले नोटों और घूसखोरी की नुमाइन्गी करने वाले नेताओं पर संसद फिर शर्मसार हुई। मीडिया की पीठ जनता ने ठोंकी लेकिन इस घपले को खुलने के बाद भी क्या कोई सांसद कानूनी तौर पर फंसा? या किसी को सजा हुई? तो स्टिंग ऑपरेशन का मतलब क्या है? आप यहाँ सवाल खड़े कर सकते है कि भारत इसीलिये तो लोकतंत्र का पहरी है क्योकि यहां संविधान के तहत चैक एंड बैलेंस की स्थितियों को समझाया गया है। और मीडिया चौथे खंभे के मद्देनजर बाकि तीन खंभों पर नजर रख सके उसकी भूमिका इतनी भर ही है।
हमारा सवाल यही से शुरु होता है जब बाकि तीन खंभे अपनी भूमिका तो नहीं ही निभा रहे है बल्कि संसदीय राजनीति को ही सांसदो ने अपने अनुकूल इस तरह बना लिया,जहां व्यक्तिगत तौर पर कोई भ्रष्ट्र या आपराधिक काम करने पर उसे विशेषाधिकार मिल जाता है। और सामुदायिक या पार्टी के तौर पर गलत-भ्रष्ट्र-आपराधिक या जन विरोधी काम को व्यवस्था की मान्यता दे दी जाती है । इतना ही नही घोषित तौर पर जनविरोधी नीतियो को लागू करते हुये सीधे सत्ताधारी इस बात का भी ऐलान करने से नही कतराता कि अगर वह गलत होगा तो चुनाव में जनता उसे सत्ता से बेदखल कर देगी। जबकि चुनाव की परिस्थितियों को भी वह इस तरह बना चुका है, जहां जनविरोधी नीतियों का बुरा प्रभाव चाहे समूचे देश पर पड़े लेकिन इस बुरे प्रभाव में भी धर्म-जाति या वर्ग के आधार पर दस या पन्द्रह फीसदी को मुनाफे के बंदरबांट में सहयोगी बनाने को लोभ देकर समाज को भी बांट देता है । यानी चुनावी लोकतंत्र के आसरे जिस चैक एंड बैलेंस की व्यवस्था संविधान के भीतर की गयी, उसे भी संसदीय राजनीति में सत्ता के खातिर तोड मरोड़ दिया गया है।
इतना ही नही खुले तौर पर जनता चुनाव के दौरान जब कई पार्टियों के उम्मीदवारो में से किसी एक पार्टी के किसी एकनेता को चुनती है तो चुनाव खत्म होते ही जनता के वोट की धज्जियां सत्ता के लिये आपसी गठजोड़ बना कर कर दी जाती है। इतना ही नही एक ही राज्य में आमने सामने खडे राजनीतिक दलो के बीच कॉमन मिनिमम प्रोग्राम का ऐसा दस्तावेज बनाया जाता है, जिसके आगे संविधान भी नतमस्तक हो जाए। जो राजनीतिक दल और राजनेता इसे अंजाम दे रहे है, वही इस संसदीय व्यवस्था में छुपाये हुये कैमरे से सूराख दिखाना चाहते है। जाहिर है संसदीय राजनीति के इस लोकतंत्र में बहुत थोडा नष्ट हुआ है बाकि नैतिकता बची हुई है इसीलिए मीडिया का आसरा लेने में भी राजनीति चूकना नही चाहती है।
लेकिन सच कितना गहरा है यह देश के किसी भी राजनीतिक दल के सत्ता में रहते हुये पहलकदमी से समझा जा सकता है। देश के सत्तर करोड़ लोग अभी भी खेती की जमीन पर निर्भर है। जमीन से अन्न उपजाने वाले किसान के लेकर चाहे वाजपेयी सरकार हो या मनमोहन सरकार दोनो की नीतियों ने किसानों को मौत के मुंह में घकेला। सबसे विकसित राज्यो में से एक महाराष्ट्र में वाजपेयी सरकार के दौर में सोलह हजार से ज्यादा किसानों ने इसलिये आत्महत्या कर ली क्योकि उनके उपज की खरीद के लिये सरकार ने कोई उचित व्यवस्था नहीं की। मीडिल मैन के आसरे किसान अपनी उपज की कीमत पाने के लिये मौसम दर मौसम बैठा रहा। बाजार तक माल ले जाने की सौदेबाजी में मीडिल मैन ने ऐसा जाल बिछाया कि दूसरी फसल का मौसम आते ही किसान ने मजबूरी में अपनी उपज कौडियों के मोल दे दी और आगे किसानी चलती रहे उसके लिये कर्ज ले लिया। इस सिलसिले को पहले बीजेपी की अगुवायी वाली सरकार ने तो बाद में यानी अब कांग्रेस की अगुवायी की सरकार आगे बढा रही है। जाहिर है किसान के घर में से रोटी गायब हुई। उसने मौत को गले लगा लिया।
वाजपेयी सरकार के दौर में महाराष्ट के सोलह हजार किसानों की खुदकुशी का आंकडा मनमोहन सरकार ने चार साल में ही सत्रह हजार पार करवा कर तोड़ दिया। यानी मिडिलमैन को व्यवस्था चलाने की कुंजी तक ही मामला ठहरता तो लग सकता है कि देश में सरकार है लेकिन सरकार ही मिडिल मैन की भूमिका में आ जायेगी यह किसने सोचा होगा? विदेशी पूंजी के जुगाड़ में अगर पहले डिसइंवेस्टमेंट के जरिये देश की संपत्ति को मुनाफे की पटरी पर लाने के नाम पर प्राइवेट सेक्टर के हवाले करने की प्रक्रिया शुरु हुई तो दूसरी पहल खेती की जमीन को विदेशी कंपनियो को देने की प्रक्रिया शुरु हुई। केन्द्र और राज्य सरकार अपने अपने घेरे में आम जनता के जीने के अधिकार को राज्य के अधिकार से कुचलने लगी। खुले तौर पर हर सरकार के नौकरशाह -पुलिस और अदालत सक्रिय हुआ कि समूचे राज्य के विकास और देशहित के आगे किसी को भी अपनी सुविधा देखने या जीने का अधिकार नहीं है। मुआवजे देकर जमीन से पीढीयों की बसावट को बेदखल करने की प्रक्रिया भी शुरु हुई। विदेशी उघोग-घंघे फले फुले और जमकर मुनाफा कमाये, सरकार इसे लागू करने में भिड़ी हुई है। हाँ, मुनाफे में सरकार का कमिशन हर स्तर पर फिक्स है। यहाँ तक भूमि सुधार के जरीये किसान-मजदूरो के बारे सोचले वाली कम्यूनिस्ट सरकार भी इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के लिये जमीन छिनने में मिडिलमैन की भीमिका में आ गयी। सर्वहारा की तानाशाही का पाठ पढने वाला कैडर भी अचानक पूंजी और बाजार की तानाशाही को लागू कराने के लिये खून बहाने को तैयार हो गया।
बीते दस साल में किसी राजनीतिक दल को संविधान या लोकतंत्र का कोई पाठ याद नहीं आया जिसमें जनता के लिये ... जनता द्वारा... सरीखी बात की जाये। न्यूनतम जरुरतो को पूरा कराने का जो वायदा संसदीय सत्ता पिछली तेरह लोकसभा से कर रही है, उसमें पहली बार बीते दस साल में इस सोच के पलिते में ही आग लगा दी गयी कि शिक्षा-स्वास्थ्य और पीने का पानी भी देश को मुहैया कराना पहली प्रथामिकता होनी चाहिये। किसी भी गांव में डेढ से दो लाख प्राथमिक स्कूल या प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोलने में खर्च आता है लेकिन इतना पैसा भी देश के सभी गांव के लिये सरकार के पास नहीं है। इन दस साल में समूचे देश में जितने प्राथमिक स्कूल या स्वास्थ्य केन्द्र खोले गये उससे तीन सौ गुना ज्यादा कार इस देश में लोगो ने खरीदी। स्पेशल इकनामी जोन के नाम पर विकास की जो लकीर खींची गयी है अगर वह सब बन जाते है तो जितने लोगो को रोजगार मिलेगा जो करीब साठ लाख तक का दावा सरकार कर रही है, वही जमीन खत्म होने के बाद देश के करीब छह करोड सीधे जुडे किसान-मजदूर रोजगार से वंचित हो जायेगे। दो जून की रोटी के लाले उन्हे पड़ जायेगे।
सवाल है किस देश के किस संसद और कौन से सांसद यह सवाल उठा रहे हैं कि स्टिंग ऑपरेशन को दिखाना मीडिया की नैतिकता है और कौन स्टिंग ऑपरेशन को ना दिखाये जाने से खामोश चुपचाप खुश है। सवाल तो यह भी है कि स्टिंग ऑपरेशन दिखाने से सरकार रहती या जाती, अगर इस हद तक की भी स्थिति थी तो भी फर्क इस देश अस्सी फिसद लोगो पर क्या पडता। अगर आपके जहन में यह सवाल उठ रहा है कि पहले के स्टिंग ऑपरेशन दिखाने वालो को अगर सजा देने की व्यवस्था कर ली जाये तब... लेकिन इसका दूसरा पक्ष कही ज्यादा त्रासदीदायक है, जब सजायाफ्ता सांसद भी संसद के भीतर आकर सरकार बचाने या गिराने में मायने रखे जा रहे हों तो वहीं स्टिंग ऑपरेशन से सरकार गिरे या बनी रहे फर्क क्या पडता है। दरअसल, आप जिस छुपे हुये सच को देखने के लिये बेचेन है, वह कहीं ज्यादा खुले तौर पर आंखो के सामने मौजूद है। और हम-आप आंख बंद कर स्टिंग ऑपरेशन देख कर अपराधी तय करना चाहते है। किसी को बचा कर किसी को फंसाना चाहते है, जिससे देश का लोकतांत्रिक मुखौटा बचा रहे।