आपके जवाब को देखकर मुझे लगता है मुद्दों को लेकर एक आक्रोष, एक बेचैनी हर किसी में है। लेकिन यह आक्रोष, यह बेचैनी भी कुछ दूर चलने के बाद हाँफने लगती है। आपको लगता होगा सवालों की फेहरिस्त तो इस देश में खासी लंबी है, लेकिन समाधान गायब है। सतीश संचयन, संजय शर्मा, जितेन्द्र भगत, अनिल, सुनीता, अनुराग, विपिन – आप जो सवाल उठा रहे हैं, उससे ज्यादा सवाल हमारे सामने किसी भी चाय-पान के ठेले पर चर्चा के दौरान उठ जाते है। लोगों में नेताओं और सरकार को लेकर आक्रोष इस हद तक है कि अगर बहस के दौरान कोई सामने आ जाये तो खैर नही। लेकिन मेरा सवाल यहीं से शुरु होता है। व्यवस्था - सरकार से दुःखी होकर आक्रोष से जलने वाले किसी भी शख्स को अगर इसी सरकार या इस तबके में शामिल होने का मौका मिलेगा, तब वह क्या करेगा? क्या तब लोकहित-जनहित का सवाल उसके भीतर घुमड़ेगा या फिर वह भी व्यवस्था में शामिल हो जायेगा? दूसरी बात कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, अगर सरकार या व्यवस्था आपके आक्रोष को राज्य के खिलाफ मान ले और कानूनी तौर पर आपके खिलाफ कार्रवाई करने लगे। अपने माध्यमों से वह आपको देशहित के खिलाफ बताये। तब आप क्या करेंगे? जाहिर है जिस जमीन पर आप खड़े हैं उसमें आपका आक्रोष, आपका गुस्सा, आपकी बैचेनी सरकार को तभी तक पंसद आयेगी जब तक सरकार के लोकतांत्रिक होने पर सवाल ना उठे। दरअसल यवतमाल हो या बुंदेलखंड या छत्तीसगढ़ या झारखंड - आपको समझना होगा कि जहाँ इस तरह के संकट हैं... मतलब किसान आत्महत्या कर रहा है, दो जून की रोटी जुगाड़ना कई जीवन जीने जैसा हो, या फिर आँखों के सामने भ्रष्ट या अपराधियों की मनमानी पर लोकतंत्र के हर खंभे को नतमस्तक होते देखा जा रहा हो, वहाँ लोकतंत्र का सवाल भी गौण है।
ऐसे में हम-आप जो बहस कर रहे हैं उससे निराश ना होइये, क्योंकि हमने 15 अगस्त को प्रधानमंत्री की उपलब्धियों को 60 मिनट तक सुना और ढेरों मित्र-बंधुओ के राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत एसएमएस भी पढ़े हैं। आजादी के दिन न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम में हँसी-ठठ्ठे में देश के सच को भुलाकर मुनाफा कमाने के नये-नये तरीके ईजाद होते भी देखे हैं। सवाल है हम पहले देश के सच को भी तो समझ लें। चूँकि बहस से एक बेचैनी उभरी है, तो मैं आप लोगों को अगली पोस्ट में उस सच से भी वाकिफ कराता हूँ, जिसे आप जानते-समझते भी होंगे। लेकिन किसी भुक्तभोगी की त्रासदी क्या होती है, खासकर तब जब सामने लोकतंत्र बेबस नजर आ रहा हो। फिर हम इस मुद्दे को खंगालेंगे कि रास्ता जाता कहाँ है।
Saturday, August 16, 2008
आपके आक्रोष-बेचैनी में बेबसी क्यों है?
Posted by Punya Prasun Bajpai at 5:00 AM
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16 comments:
पुण्य प्रसून जी,
आपका ब्लॉग पत्रकारों के अन्य ब्लागों से भिन्न लग रहा है | कारण है कि आप उंगली उठाने और मन की व्यथा को कागज़ पर रखने के आगे की भी बात कर रहे हैं | आमतौर पर ब्लागजगत में अनेक लेख मन की व्यथा जताने और "आज आवश्कता है कि समाज, जनता ........." से समाप्त हो जाते हैं | आप ही के शब्दों में कहें तो ऐसी व्यथा से कहीं अधिक भाव चाय की दूकान पर होती एक चर्चा में दिख जाते हैं |
आपके लेख की अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा |
शुभकामनाएं |
हम इस मुद्दे को खंगालेंगे कि रास्ता जाता कहाँ है।
...........ठीक है हम भी देखेंगे कि रास्ता जाता कहां है, लेकिन एक बात कहूं बाबू मोशाय....ऱास्ता वहीं रहता है....बस चलने वाले बदल जाते है.....कभी इसी बेचैनी में चलकर जनता सरकार इसी रास्ते से चलकर गई थी, अगल बगल के पेड-खेत गमक उठे थे लेकिन यह गमकना बस कुछ पल के लिये था, वह लोग भी उसी सिस्टम का हिस्सा बन गये जिसे रौंदने की ख्वाहिश लिये आगे बढे थे, फिर एकाध बार जनता दल के लोग उसी रास्ते पर आगे बढे लेकिन लडखडा कर गिर पडे क्योंकि विधाता ने अचानक ही उसके पैरों की संख्या बढाकर आठ दस कर दी जिससे हर पैर अलग ही रास्ते पर चलने की ललक में चलने लगा और वह जीव जो चला था रास्ते की खोज खबर लेने, अपने में ही लडखडा कर गिर गया और अंत में पीछे से आने वाले विशाल कांग्रेसी जीव के नीचे आकर लहूलुहान हुआ, आजकल उसी के एक पैर सपा का उपयोग टेकती हुई लाठी के तौर पर हो रहा है...और सरकार उसी रास्ते से चलती जा रही है, और चलते ङुए रह रह कर लाठी की आवाज आ रही है, ठक् ठक्......ठक् - ठक्
समस्या यह है कि गुस्सा निकाल कर लोग चुप क्यों रहते हैं? और जो जिम्मेदारी समझते हैं वे इस गुस्से को दिशा दे रहे लोग कहाँ हैं? केवल गुस्से को भुनाने वाले ही क्यों नजर आते हैं मीडिया पर।
मेरा नाम लेने के लिए शुक्रिया. समाधान के विचार यहाँ हैं.
intezaar karenge agli post ka
Punya prasun ji, aap aur aap jaise kuchh aur patrakar bandhu apne kartavya ke prati nistthavaan hain yah dekhkar ek ummeed jaagti hai ki - '' Wo subah kabhee to aayegi...'' Varna media karmi ka chola pahankar netaaon aur afsaron ke liye dalali karne walon ki bhi koi kami nahi hai.
आक्रोश-बेचैनी के साथ बेबसी भी तो व्यवस्था की देन है। इस व्यवस्था के चारों अंग इसके लिए दोषी हैं। इन चारों ने मिलकर पिछले साठ वर्षों में ऐसा ताना-बाना बूना है कि आम लोगों को आक्रोश और बेचैनी में बेबसी के साथ जीना पड़ता है,और जिनके अन्दर आक्रोश और बेचैनी तो होती है,लेकिन वे हथियार नहीं डालना चाहते हैं,वे लड़ना चाहते हैं,इस समाज से,इस व्यवस्था से,इस बहु-प्रचारित लोकतंत्र के तथाकथित चारो प्रहरियों से तो उनके साथ क्या होता है,इस ओर प्रसून जी ने अपने पोस्ट में इंगित किया है। ऐसे में यह हताशा अस्वाभाविक भी नहीं है।
रही बात व्यवस्था का अंग बनकर भी की जनता के प्रति सरोकार बने रहेंगे ? इसका जवाब प्रसून जी को पता है। राजनीति चाहे जितनी भी खराब हो गई है लेकिन कुछ लोग आज भी इसी राजनीति में हैं जिनसे उम्मीद बनती है कि आज नहीं तो कल सूरत अवश्य बदलेगी। ऐसे कई उदाहरण हो सकते हैं अपने देश में। मैं प्रसून जी के राज्य झारखंड के महेन्द्र सिंह का उदाहरण सामने रखना चाहूँगा। वे संसदीय राजनीति में रहकर भी आम रास्ते से हटकर अलग रास्ता बना रहे थे। इसे आप बगोदर आकर खुद महसूस कर सकते हैं। शायद अलग चलने के कारण ही उनकी हत्या करवा दी गई। खून के छींटे इसी व्यवस्था पर पड़ी। इसीलिए ऐसा नहीं है कि आज जो भी बहस कर रहे हैं वे व्यवस्था के अंग बन जायें तो वे भी बेईमान हो जायेंगे, ऐसा नहीं है। फिर भी एक महेन्द्र सिंह या पूण्य प्रसुन बाजपेयी इस व्यवस्था के खिलाफ शब्द उगलेंगे तो यह व्यवस्था आग उगलेगी। इसलिए परिस्थितियाँ सुविधाजनक नहीं हैं। पहले भी नहीं थी। अब बद से बदतर हुईं हैं। इसके लिए बाकी के साथ पढ़-लिखा तबका दोषी है। यह तबका गद्दार हो गया है। देश,समाज और खुद के प्रति भी। गद्दारी इस वर्ग के खुन में आ गया है। इसलिए यह तबका सिर्फ बोलता है या लिखता है।उतना ही बोलता और लिखता है जिससे यह व्यवस्था उसे नक्सली न कह दे और महेन्द्र सिंह के रास्ते न भेज दे।
गोरख पाण्डेय ने अपनी कविता में कहा है-" इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देनी चाहिए।" बदलाव तो हो रहा है लेकिन कौन सी दुनिया बन रही है। क्या वही दुनिया बन रही है जैसा गोरख पाण्डेय या हम और आप चाहते हैं। दुनिया और बिगड़ रही है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि दुनिया बदल तो रही है लेकिन सुधर नहीं रही है। इसलिए हताशा की चरम स्थिति में ऐसा विचार भी आता है कि दुनिया को बदलने के बदले क्या इस दुनिया को खत्म नहीं हो जाना चाहिए ? फिर से नई दुनिया का निर्माण हो। हम रहे न रहें,जो रहेंगे,अपने हिसाब से नई दुनिया गढ़ेंगे।
-गिरिजेश्वर
Prasun ji yah aapka media hi hai jo logon ke saamne desh ke mudde ko siddat ke saath rakhkta aur phir log us par apni sakaratmak aur nakaratmak pratikriya dete hain. ek asha ki kiran yah dikhayee deti hai ki log desh ke mudde par sochte to hai , aur jisme jitna dam hai us hisaab se apni pratikriya karta hai. atah sabhi se yah ummeed nahi ki ja sakti hai ki iska jor daar virodh kar sake. Ishwar aur allah ko apna rakshak aur path pradarshak maanne wale desh main unke abhaav main kuch khass ho paane ki apeksha nahi kar sakte hain. phir bhi logon main jaagrukta aa rahi hai aur logon ki pratikriyayen jaroor ek din kuch acchha kar dikhayegi.
Happy
Independence day
sir
Kamlesh Kumar maurya
Noida
I am asking some question to you.
Sixth pay commission ko kyon lagu kiya gaya. Jab ki desh ki mostly longo ki earning 100 rupees se bhi kam hai.
Sarkari karmchariyon ki salari badan adhik jaroori hai ya garibon ko roti, sarkari karmchariyon ko Naino kharidane ke liye salary badana jaroori hai ya garib longo ko ghar.
54 lac sarakri employee jo corrupt aur nikamme hain unhe tohapha dena jaroori tha ki crores longo ko samanya jivan jine ki subidha.
Desh amiron ko amir banana ke liye shashit ho raha hai ya longo ko rojgar, dene ke liye.
Kya hum vastava men world economic power ban rahe hain jahan longo ko rojgar nahin, residence nahin, food nahin wah desh keval chanda amir industrialist aur sarakari employee ko subidha dekar vishwa ki mahashakti ban sakata hai.
Janata looti ja rahi hai aur UPA aur sabhi political parties roopi niro banshi baja rahe hain.
Desh ki janata aisi sarakaron ko adhik din tak vardasta kar payegi.
Sir desh Nepal ke raste par nahin jar aha hai. Jahan longo ne Prachanda ko isliye satta saunp di kyon ki shashan karane wale log garibon ki puri andekhi kar rah the wahi apane desh men bhi ho raha hai
वाजपेयी जी गंभीर मुद्दों के साथ आपने व्यवस्था और उसकी विसंगतियों को शिद्दत से उठाया है ..विदर्भ के यवतमाल के जलका गांव की कलावती आज सिर्फ इसलिये धन्य हो गइ है कि उसका नाम देश के भावी प्रधानमंत्री ने संसद में लिया ...उस गांव में सबसे पहला घर कलावती का ही है ..आज कलावती के लिये राहुल किसी देवता के समान है ..किसी गांव से २ किमी की दूरी पर कम से कम १५ किसानों की कइ एकड जमीन को राज्य सरकार ने डैम बनाने के नाम पर अधिग्रहित कर लिया ..गलत ढंग से अंगूठा दिलाकर बहुत कम राशी मुआवजा के नाम पर दिया और सरकार ने कहा कि बाकि रकम बाद में दे दिये जाएंगे कइ साल हो गये ना तो वहां सरकार ने डैम ही बनाया और ना किसानों को मुआवजे की बाकि राशी ही दी ...पीडित किसान खेती भी नही कर सकते और उनके परिवार दाने दाने को मुहताज है ।
वाजपेयी जी महाराज
दिनेश राय द्विवेदी जी की
टिप्पडी पर गौर फरमाइयेगा....
आज़ादी की बात पर होता नहीं गुमान।
बहुत गुलामी देश में पसरी है श्रीमान्॥
पसरी है श्रीमान् यहाँ बदहाल गरीबी।
जाति-धर्म के भेद और आतंक करीबी॥
घोर अशिक्षा, पिछड़ापन, बढ़ती आबादी।
भ्रष्टतंत्र की भेंट चढ़ी अपनी आज़ादी॥
प्रसून जी, समस्याओं की जानकारी कमोबेश सबको हो गयी है। सवाल उनके समाधान का है। इसके लिए क्रांति से कमतर कुछ भी कारगर नहीं होगा।
चिंतनकाल
http://billoresblog.blogspot.com/2008/08/blog-post_16.html
पुण्य प्रसून बाजपेयी जी बिल्कुल सही नब्ज पकडी है आपने। हमारे हुक्मरानों की सेहत के लिये अगर जनता का आक्रोष-बेचैनी फायदेमंद है तो ये देशहीत में है, अन्यथा ...।
सभी राजनितिज्ञ-कर्मचारी-वकील-जज बेईमान हैं भ्रष्ट हैं, मिडियाकर्मी ब्लेकमेंलर हैं एडिटर डायरेक्टर के पपेट है...। इस तरह के अति सामान्यीकरण की जो रवायत हमारे यहा चलायी जा रहीं है वह बडी खतरनाक है, बहस करते समय इस तरह के अति सामान्यीकरण से बचा जाना चाहिये। कुछ सांसदो के व्यवहार से समस्त संसद को दोषी ठहरा दिया जाना उचित नहीं होगा, लेकिन यह विडंबना ही है कि समस्त सांसद को बिकाउ घोषित कर परमाणु करार मसले पर सासंदो की खरीद-फरोख्त जैसी गंभीर गिरावट पर बहस को बायपास किया जा रहा हैं। जिन लोगो ने समस्त संसद को बदनाम किया उनकी अच्छी मजम्मत की जाने की जरूरत है साथ ही बहुसंख्यक सांसद जो बिना वजह कुछ सांसदो की करतूत का खामियाजा भुगत रहे है हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिये। ...
सिर्फ व्यवस्था को लानत-मनालत भेजने से काम चलने वाला नहीं है, जन-हितैषी नितीया लागू कराने के लिये हमारे हुक्मरानों (सिर्फ सरकार ही नहीं वरन समस्त शासक वर्ग) को किस तरह विवश किया जाये इस विषय पर जोरदार बहस चलायी जाना चाहिये, इस बहस से एक पनवारी या ठेला चलाने वाला बचा रह सकता है, पर पत्रकार-बुद्धिजीवी-समाजशास्त्री-राजनितिज्ञ ही अगर इससे कन्नी काटने लगे तो बचाखुचा लोकतंत्र भी खत्म हुआ समझो।
महंगाई के चलते जनता में व्याप्त आक्रोष-बेचैनी को आज हमारी आखो के सामने बडी आसानी से अमरनाथ जैसे तुक्ष्य मुद्दे के बहाने सांप्रदायिकता-आतंकवाद-अलगाववाद की तरफ मोडा जा रहा है। हमारे हुक्मरां बारूद के ढेर पर बैठ आतिशबाजी करने में मशगुल है, एक तरफ काश्मीर जल रहा है तो नार्थ-ईस्ट को अपनाये जाने की किसी को सुध नहीं है।
इन तमाम बहसो के बीच संसद में भगतसिंह की धार्मिक नेता सद्ष्य मूर्त्ति का अनावरण सांप्रदायिकतावाद-साम्राज्यवाद के प्रतिनिधियों की उपस्थिती में किया गया। ज्ञातव्य रहे कि नास्तिक भगतसिंह सांप्रदायिकता व साम्राज्यवाद के घोर विरोधी थे, अपनी छोटी सी उम्र में इन दोनो दानवो से निपटने का नुख्सा भी वे हमें दे गये। उनकी छोडी विरासत को आगे बढाने की जगह आज इन दानवों को मुर्ग-मसल्लम खिलाकर तगडा किया जा रहा है, एक तरफ हम अमेंरिकी-इसरायली साम्राज्यवाद के पिछलग्गू बन बैठे है तो दुसरी तरफ सांप्रदायिकता हमारे युवा की संवेदना को भोथरा बनाने में लगी हुवी है। इन दानवों के फलने-फूलने से व्यथित बैचेन हमारे मित्र धीरेश सेनी (एक जिद्दी धुन) सवाल उठा रहे है कि "आज भगत सिंह होते तो?"...
मैं निराशावादी तो नहीं हूं लेकिन हकीकत यही है कि फिलहाल कोई रास्ता नजर नहीं आता। इसके भी आगे का सच ये है कि मीडिया तो हमारे गुस्से, हमारे आंसू व हमारी खुशी भी बेच कर खा जाता है। वह आज की तारीख में उस गुस्से या खुशी में तब तक शामिल होता है जब तक उसका प्रोडक्ट बिक रहा होता है।
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