Thursday, December 17, 2009

आडवाणी युग के बाद की भाजपा

नागपुर में पहली बार सीमेंट की सड़क 1995 में बनी तो रिक्शे वालों ने आंदोलन छेड़ दिया । रिक्शे वालों का कहना था कि नागपुर में जितनी गर्मी पड़ती है उससे सीमेंट की सड़क में टायर चलते नहीं हैं। लेकिन कार वाले खुश हो गये कि अब गड्ढ़े में हिचकोले नहीं खाने होंगे। बरसात में अंदाज रहेगा कि सड़क अपनी है, परायी हुई नहीं है। आखिरकार रिक्शे वाले आंदोलन कर थक गये तो फिर पुराने नागपुर में संघ मुख्यालय के बाहर सीमेंट की सड़क बनाने की तैयारी शुरु हो गयी, जहां ज्यादा रिक्शे ही चलते हैं। इस बार आंदोलन हुआ नहीं। और फिर सीमेंट की सड़क बनाने का सिलसिला समूचे महाराष्ट्र में शुरु हुआ। सीमेंट की यह सड़क और कोई नहीं बल्कि भाजपा के अध्यक्ष पद को संभालने जा रहे नीतिन गडकरी ही बनवा रहे थे, जो उस वक्त महाराष्ट्र के पीडब्ल्‍यूडी मंत्री थे। कुछ इसी तरह की सड़क भाजपा के भीतर संघ बनवाना चाहता है और उसका विरोध दिल्ली की आडवाणी चौकड़ी करेगी, लेकिन भविष्य में कहा जायेगा कि नागपुर के गडकरी तब भाजपा अध्यक्ष थे। और उनके पीछे नागपुर के ही सरसंघचालक भागवत का हाथ था। असल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गडकरी के जरिये जो राजनीतिक प्रयोग भाजपा में करना चाह रहा है, उसे गडकरी पूरा कर सकते हैं, इसका भरोसा आडवाणी को चाहे ना हो लेकिन सरसंघचालक मोहनराव भागवत को पूरा है।


नागपुर में दीपावली के दिन संघ मुख्यालय में भागवत, भैयाजी जोशी और गडकरी की मुलाकात में ना सिर्फ गडकरी के नाम पर संघ ने मुहर लगायी बल्कि गडकरी के कान में जो मंत्र फूंका, उसमें सत्ता केन्द्रित राजनीति की जगह संघ केन्द्रित भाजपा जो अनुशासन के दायरे में रहे, इसी की फुसफुसाहट थी। नीतिन गडकरी संघ में जिनसे सबसे ज्यादा प्रभावित रहे हैं, वह हैं भाउराव देवरस, जिन्होंने आम आदमी का सवाल संघ के भीतर ना सिर्फ खड़ा किया बल्कि 1974 में जेपी के साथ राजनीतिक प्रयोग करने का सुझाव बालासाहेब देवरस को दिया। जाहिर है दिल्ली में पद संभालते ही गडकरी के तीन मंत्र होंगे- विकास के नये प्रयोग, आम आदमी की बात और संघ के अनुशासन का डंडा। तीनों मंत्र भाजपा की आडवाणी युग से टकरायेंगे और कटुता पार्टी में बढ सकती है इसका अंदाजा गडकरी को भी है और भागवत को भी। इसलिये गडकरी के जरिये भागवत कथा की जो तैयारी संघ कर रहा है, वह संघ को दुबारा 1951 की स्थिति में ले जाकर संवारने वाली है।


राजनीतिक तौर पर कभी जनसंघ और फिर भाजपा का कद अगर बढा तो उसके पीछे लोहिया और जेपी का हाथ रहा है इसे मोहनराव भागवत समझते नहीं होंगे ऐसा है नहीं। लेकिन भागवत संघ को हेडगेवार की सोच के अनुरुप मथना चाहते हैं, इसलिये लोहिया या जेपी के साथ मिलकर किये गये प्रयोग को संघ के भीतर बिखराव की वजह भी मानते है। यानी इसी प्रयोग से संघ के भीतर टूटन पैदा हुई जो संघ को कमजोर करती गयी। जनता पार्टी की सरकार में आरएसएस के स्वयंसेवक मंत्री जरुर बन गये लेकिन यहीं से भाजपा का जन्म भी हुआ और राजनीतिक तौर पर भाजपा ने अलग राग भी पकडा और रिमोट से चलने वाले संघ के तमाम संगठन अपनी मनमर्जी करने लगे। संघ के भीतर माना जाता है कि देवरस ने इसीलिये अयोध्या आंदोलन को हवा दी जिससे राम मंदिर को लेकर आरएसएस के तमाम संगठन एक छतरी तले आ जायें। देवरस को इसमें सफलता भी मिली। लेकिन भागवत के सामने कहीं बड़ा संकट है कि उनके दौर में सत्ता तो दूर, सांगठनिक तौर पर भाजपा या विहिप या स्वदेशी जागरण मंच ही नहीं खुद आरएसएस भी अपने घेरे में सिमटती दिख रही है। और सरसंघचालक की मौजूदगी ही एक नयी लीक किसी भी संगठन के लिये बना देती थी। उसी सरसंघचालक की मौजूदगी को ही हाशिये पर ढकेलने की कोशिश भाजपा के नंबरदार करने से नहीं चूक रहे।


जनता पार्टी की सरकार बनने के दौरान चन्द्रशेखर के कहने पर देवरस ने 'हिन्दू' शब्द दबा दिया और एनडीए की सरकार बनने पर वाजपेयी के कहने पर सुदर्शन ने हिन्दुत्व को हवा नहीं दी। लेकिन इससे आरएसएस का बंटाधार हो गया और अब हिन्दुत्व को लेकर संघ समझौता नहीं करेगा। भागवत यह मान कर चल रहे हैं कि सत्ता के लिये जोड़तोड़ की राजनीति का कोई लाभ नहीं है, इसलिये नीतिन गडकरी को भी इसकी चिंता नहीं करनी है कि जोड़तोड़ से भाजपा की राजनीतिक दखल कितनी बरकरार रहती है। इतना ही नहीं दिल्ली से लेकर राज्यो में सत्ता बरकरार रहे या ना रहे लेकिन संघ की सोच के अनुरुप हर संगठन को चलना होगा और हर क्षेत्र में जबतक यह दिखायी ना देने लगे कि संघ का स्वयंसेवक सफल हो रहा है तबतक काम अधूरा है। यानी गुरु गोलवलकर ने जिस संघ को विस्तार दिया और एकजुटता बनायी, फिर उसे रिमोट से चलाया, भागवत इसे ही सहेजना चाहते हैं। यानी गुरु गोलवलकर के दौर को हेडगेवार के तौर तरीकों के जरिये आरएसएस को जीवित करना चाहते हैं। विकास, आम आदमी और अनुशासन को गडकरी चलायें और हिन्दुत्व कहने या बोलने की जरुरत गडकरी को ना पड़े, इसकी व्यवस्था भागवत हिन्दुत्व में संघ के सभी संगठनो को मथकर करना चाहते हैं।


इस लीक को बनाने में भागवत के तौर तरीके बिलकुल हेडगेवार की तरह हैं। काशी की भरी सभा में हेडगेवार ने कभी कहा था, " मैं डा. केशव बलिराम हेडगेवार कहता हूं, यह सदा सर्वदा से हिन्दू राष्ट्र था, आज भी है और जन्म जन्मान्तर तक हिन्दू राष्ट्र रहेगा। " इसपर एक वक्ता ने व्यंग्यपूर्वक पूछा-"कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है?" तो सीना ठोंक कर उच्च स्वर में उत्तर आया--डा हेडगेवार ने। असल में भागवत को यह वाकया ना सिर्फ पूरी तरह याद है बल्कि हेडगेवार की वह तमाम परिस्थितयां भी याद हैं, जिसमें विपरीत परिस्थितयों के बीच आरएसएस को हेडगेवार खड़ा कर रहे थे। हेडगेवार सार्वजनिक राजनीति में दखल देते हुये संघ की नींव सामाजिक तौर पर डालना चाहते थे और डाल भी रहे थे। भागवत का अंदाज भी कमोबेश इसी तर्ज पर है। दिल्ली में बैठे भाजपा नेता हों या राजनीति की जोडतोड में गठबंधन के जरिये सत्ता पाने की होड़ में जुटे भाजपा नेता या फिर खुद लालकृष्ण आडवाणी, असल में हिन्दुत्व और संघ के अनुशासन की बात उनके गले 21 वीं सदी में उतर नहीं रही है और राजनीति के लिये संघ का भाजपा में दखल उन्हें हो सकता है बार-बार दकियानूसी लगे, लेकिन भागवत का मानना है कि हेडगेवार की नींव और गोलवलकर के विस्तार से आगे राजनीति गयी नहीं है। इसलिये भागवत ना सिर्फ संघ की, बल्कि हर सार्वजनिक सभा में यह उद्धघोष करने से नहीं चूकते कि भारत हिन्दू राष्ट्र है। और अगर कोई व्यंग्य करता है तो हेडगेवार की तर्ज पर सीधे हांकते हैं, ...यह संघ का मानना है, और हम अपने हर कर्म का आधार भी इसे ही मानते हैं।


संभव है भागवत का यह बयान भाजपा की राजनीति की गले की हड्डी बन जाए और उसे लगने लगे कि ऐसे में एनडीए का खात्मा हो जायेगा। बिहार में नीतिश कुमार बिदक जायेंगे। लेकिन भागवत जिस कथा को कहना चाह रहे हैं, उसमें नीतिश कुमार से गांठ बांधे रखने के लिये भाजपा को वह संघ से इतर जाने देने के पक्ष में नहीं हैं। भागवत किस तरह का कायाकल्प संघ में देख रहे है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि संघ की बौद्धिक सभाओ में विभाजन के बाद लुटे-पिटे पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू बंधुओं की सुरक्षा और पुनर्वास का कार्य किस तरह जानपर खेलकर स्वयंसेवकों ने किया, उसे याद किया जाने लगा है। चीन के साथ युद्ध हो या 1965 और 1971 में पाकिस्तान से युद्ध, स्वयंसेवक किस तरह मोर्चे पर घायलों की मदद और रक्त तक की व्यवस्था किया करता था, इसे संघ की सभाओ में यह कह कर जिक्र होता है कि भाजपा ने सबकुछ सेमिनारों में सिमटा दिया है और महंगाई जैसे मुद्दे पर भी जनता से खुद कटी हुई है। ऐसे में भाजपा की जोड़तोड़ की राजनीति का क्या अर्थ।


असल में गडकरी के जरिये भागवत एकसाथ कई संकेत देना चाहते हैं। पहली बार संघ के सरसंघचालक भागवत, सरकार्यवाह भैयाजी जोशी और भाजपा अध्यक्ष नीतिन गडकरी तीनों नागपुर के हैं और ब्राम्‍हण हैं यानी कोई आधुनिक सोशल इंजीनियरिंग नहीं चलेगी। और यह सब नीतिन गडकरी कैसे करेंगे इसका उदाहरण भी गडकरी के पीडब्ल्‍यूडी मंत्री रहते हुये नागपुर में किये गये प्रयोग से समझा जा सकता है। क्योंकि मंत्री बनते ही गडकरी ने फ्लाईओवर बनाने का सिलसिला शुरु किया। नागपुर के वर्धा रोड पर फ्लाईओवर बनाने में सबसे बड़ी दिक्कत सड़क के बीच लगी झांसी और गांधी की प्रतिमायें थीं। लेकिन नीतिन गडकरी ने पुल भी बनवाना शुरु किया और झांसी-गांधी के बुत को जड़ से उखड़वाकर सड़क के किनारे हुबहू वैसे ही लगवा भी दिया। यह अपनी तरह का पहला प्रयोग था। सवाल यही है भाजपा अध्यक्ष पद संभालने के बाद संघ का फ्लाईओवर बनाने में गडकरी कितनों को जड़ से उखाड़ेंगे या सभी इस फ्लाईओवर को बनाने में जुट जायेंगे।

13 comments:

vikas mehta said...

BHUT HI ACHHA LEKH

Dr. Shreesh K. Pathak said...

ओह एक बेहतरीन आलेख पर कल्पना का सहारा लिया है आपने बिंबों के प्रयोग मे....गडकरी पक्की सड़क बनवाएंगे तो आम आदमी का नारा कैसे लगाएंगे..!

prabhat gopal said...

sir, lekh kafi lamba ho ja raha hai..

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर समीक्षा!

nayi kiran said...
This comment has been removed by the author.
nitu pandey said...

सर, शुक्रिया नागपुर सड़क इतिहास को बताने के लिए....आपके द्वारा लिखी गई आलेख में कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती है..धन्यवाद

प्रेम said...

हर बार की तरह यह लेख भी बेहतरीन है। मुझे लगता है कि गडकरी की राह काफी मुश्किल है। बीजेपी पर पूरी तरह से जनाधारहीन नेताओं का कब्जा है और वे इसे बरकरार रखना चाहेंगे। गडकरी की कद भी उतनी ऊंची नहीं है कि सब नेता उनकी बात मानेंगे। हां, यह हो सकता है कि संघ के नेताओं समेत आडवाणी भी उनके हर कदम का समर्थन करें, तो कुछ बात बन जाए। पर, बीजेपी को मौजूदा संकट से निकालने के लिए मजबूत अध्यक्ष की जरूरत है।

Unknown said...

पुण्य जी, प्रणाम
नई सड़क तैयार ज़रूर हो रही है लेकिन सवाल ये है कि सिमेंट की ये नई सड़क बीजेपी की गाड़ी को ही मुश्किल में नहीं डाल देगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि बदलाव के रूप में गडकरी का आना एनडीए के पतन की भूमिका है। वैसे सड़क का प्रयोग अनूठा है खासकर तब जबकि बीजेपी एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां रास्ता ढूंढ़ना उसके लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। अस्तु कंटेट कमाल है।

Arun sathi said...

प्रसुण जी
नमस्कार
सच में आलेख जमीन को छुता हुआ लगा। पर हमारे जैसे लोग बिहार के एक गांव में रहते है यह सोचतें हैं कि भाजपा का यह कदम कम से कम आंतरिक लोकतंत्र का परिचायक तो है वरना आज अन्य दलों में क्या हो रहा है यह देखा जा सकता है। गडकरी एक आम कार्यकत्र्ता से पार्टी के अध्यक्ष बने है निश्चय ही आम आदमी का दर्द वे समझ सकतें है।
अरूण साथी
शेखपुरा, बिहार

Rohit Singh said...

sir
gadkari ke liye abhi kuch kahna jaldbazzi hoga..par lagta hai ki bjp ko surgery ki jarrot to thi hi...ab jab woh khud nahi sudregi to RSS ko aage aana hi tha...aaj nahi tokal...akhir jinha ke jin se bjp ko ubaaran jo hai.....

Unknown said...

Respected Bajpayee ji,

I am very new to your blog and I came to know about this blog through a news paper which had published some of your lines written in your blog.Today I am feeling that I was missing a lot which must be learned and same spirit of universal learner virtually forced me to join you on your blog.

As far as your this article is concerned its a well analyzed and well written.Truely Bhagwat wants to keep the baton which is called dand in his hand but I dont think so that he will empower or say back-up old Hindu Rashtra theory,if it is so then why K.C. Sudarshan met Muslim maulvis in lucknow and why Mr. Bhagwat has planned to visit Nadwa and meet Rabe hasan nadwi in his upcoming scheduled tour of Lucknow on 9th and 10th January.
Passing of Advani was must because till date the RSS leadership was equivalent to Atal Ji and Advani but currently the situation has become of Junior and Senior, Bhagwat is supposed junior than that of both Atal and Advani so it was becominh tough to control and elevation of jaitley,Sushma,shivraj or Modi would have been treated as keeping baton in hands of Advani thus the Gadkari was fittest person and same is Darwin doctrine which says "Survival of Fittest".

Kranti Kishore Mishra

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

दिल्ली की सपनीली और रपटीली सडको पर भी गड्करी को भी वैसी ही मुश्किले होन्गी जैसी नागपुर मे रिक्शे वालो को महसुस हुइ थी

BIHARI BABU said...

lekh kaphi achha hai.par lekh ke ant main aapne jatibad pe kyun aaye ye samajh se bahar hai.kya jatibad se hat ke kuch nahi ho sakta hai?kyun jati ka jikra kar ke jati ke aadhar pe samaj ko batna chah te hai.