Wednesday, August 20, 2008

तंत्र की तानाशाही के आगे लोकतंत्र की बेबसी

विकास की नयी आर्थिक लकीर महज गांव और छोटे शहरो से महानगरों की ओर लोगों का पलायन ही नही करवा रही है बल्कि लोकतंत्र का भी पलायन हो रहा है। लोकतंत्र के पलायन का मतलब है, प्रभु वर्ग की तानाशाही। या कहें तंत्र के आगे लोकतंत्र का घुटने टेकना । यह ऐसा वातावरण बनाती है, जहां आरोपी को साबित करना होता है कि वह दोषी नहीं है। दोष लगाने वाले को कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती । लोकतंत्र की नयी परिभाषा में संसद और संविधान के साथ बाज़ार और मुनाफा भी जुड़ गया है। इसलिये लोकतंत्र के पलायन के बाद नेता के साथ साथ बाज़ार चलाने वाले व्यापारी भी सत्ता का प्रतीक बन रहा है। उसके आगे मानवाधिकार कोई मायने नहीं रखता।

पिछले दो दशक के दौरान बिहार, उत्तरारखंड, छत्तीसगढ, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में दो लाख से ज्यादा लोग मानवाधिकार हनन की चपेट में राजनीतिक प्रभाव की वजह से आए। यानी राजनीति ने अपना निशाना साधा और आम आदमी की पुलिस-प्रशासन ने सुनी नहीं। अदालत में मामला पहुंचने पर आम नागरिक के खिलाफ हर तथ्य उसी पुलिस प्रशासन ने रखे, जो सिर्फ नेताओं की बोली समझ पाते हैं। इन छह राज्यों में करीब पचास हजार मामले ऐसे हैं, जिनमें जेल में बंद कैदियो को पता ही नहीं है कि उन्हें किस आरोप में पकड़ा गया ? ज्यादातर मामलों में कोई एफआईआर तक नहीं है। या एफआईआर की कॉपी कभी आरोपी को नहीं सौपी गयी। यह मामला चाहे आपको गंभीर लगे लेकिन जिन राज्यों से लोकतंत्र का पलायन हो रहा है, वहां यह सब सामान्य तरीके से होता है। भुक्तभोगियों की त्रासदी उन्हीं के मुंह से सुनिये, तब तंत्र के आगे देश के लोकतंत्र की बेबसी समझ में आयेगी ।

छत्तीसगढ का शहर भिलाई । जेल के अंधेरे में नब्बे दिन काटने के बाद अजय टीजे को अपने उस शहर में रोशनी दिखायी नहीं दी, जहां उन्होंने दस साल काटे । जेल क्यों गया। घर से जब पुलिस पकड़ कर ले गयी तो पुलिस ने कुछ नहीं कहा। अब जेल से छुटा है तो यह सब किसे बताये । जो अपने संगी - साथी - सहयोगी थे वह अजय टीजे के पास इसलिये नहीं आ रहे है कि पुलिस उन्हे भी गिरफ्तार कर जेल में ठूस देगी। फिर उनकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं होगा । अजय की पत्नी शोभा और बेटे अमन को भी भिलाई में कोई छत नसीब नहीं हुई, जब अजय जेल में था । अजय को जमानत इस शर्त पर दी गयी कि वह हर दूसरे सोमवार को पुलिस थाने में अपने होने का सबूत देता रहेगा । यानी छत्तीसगढ में अभिव्यक्ति के लिये भी अजय को जगह नहीं मिली । अजय 12 अगस्त को दिल्ली आया, जहा लोकतंत्र बरकरार है । दिल्ली पहुंच कर अजय ने बताया कि ज़मानत मिलते ही पुलिस ने धमकी दी थी- खबरदार किसी से कुछ न कहना । मीडिया के पास तो बिलकुल नहीं जाना । अजय केरल का है और साठ के दशक में उसके चाचा भिलाई आए । उन्होंने भिलाई स्टील प्लांट के बाहर चाय की दुकान लगा ली । फिर पिता नौकरी के सिलसिले में नब्बे के दशक में भिलाई आये तो अजय फिर छत्तीसगढ का ही होकर रह गया । फोटोग्राफी से जिन्दगी की गाड़ी शुरु करने वाले अजय की ज़िन्दगी में कई मोड़ आये, लेकिन गरीबी की वजह से बच्चों के न पढ़ पाने का दर्द उसे सालता रहा। आखिर में दस-बारह बच्चों को खड़िया स्लेट दे कर उसने पढ़ाने की ठानी । गड़बड़ी वहीं से शुरु हुई । सामाजिक संगठनों से जुड़ा। मानवाधिकार संगठन और कार्यकत्ताओं से मिला । कथित लोकतंत्र की तानाशाही या कहे लोकतंत्र का पलायन यही से उभरा । सामाजिक कार्यकर्त्ता या मानवाधिकार कार्यकर्त्ता राज्य की गलत नीतियों पर उंगुली उठायेगे ही । फिर उनसे अजय टीजे की मुलाकात ने नया रंग भरा । क्योंकि अजय आदिवासी गरीब बच्चों को पढ़ा रहा था। तो पुलिस की नज़र में अजय चढ़ गया । विकास का जो खाका छत्तीसगढ सरकार ने खींचा है, उसमे अजय फिट बैठता नही है । 5 मई को पुलिस ने अजय के घर का दरवाजा खटखटाया । कम्प्यूटर, किताब, खडिया, स्लेट समेत अजय को भी पुलिस ने जीप में डाला और बंद कर दिया । 48 घंटे बाद अदालत में पेश किया गया । लेकिन अजय को नहीं बताया गया कि उसे किस आरोप बंद किया जा रहा है । यहा तक कि 93 दिन जेल में बंद रहने के बाद जब जमानत दी गयी, तब भी आरोप की जानकारी अजय को नहीं मिली । कानूनी कागज पर अजय को राष्ट्रविरोधी जरुर बताया गया और राज्य के विशेष कानून के तहत गिरफ्तारी दिखाते हुये गैर कानूनी कार्यों में संलग्न होने का अरोप जरुर लिखा गया । लेकिन आरोप की जानकारी आज भी अजय को नहीं है ।

महाराष्ट्र का जिला गढ़चिरोली। इसी जिले का है मनकु उइके । जिसे जन्म से ही पता नही कि देश स्वतंत्र है। यहा कानून का राज चलता है । जनता की चुनी सरकार काम करती है।

1993 में जब तीन साल का था, तब पिता रेणु केजीराम उइके को पुलिस पकड़ कर ले गयी । मनकु पांच साल का हुआ तो जेल में पिता की मौत हो गयी इसकी जानकारी उसे एक साल बाद यानी 1996 में मिली । उसके बाद से बारह साल बीत चुके हैं, और पहली बार वह दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के चुनाव में वोट डालेगा । अब उसकी उम्र 18 साल हो चुकी है । लेकिन बचपन से लेकर अभी तक उसने अपने घर पर सिर्फ खाकी वरदी का रौब देखा है । पुलिस-सुरक्षाकर्मी जब चाहे उसके घर में घुसते हैं, उसके परिवार के किसी ना किसी सदस्य को मनमानी तरीके से थाने ले जाते । कई कई दिन तक बंद कर देते । मनकु किससे शिकायत करे, यह उसे आज तक समझ में नहीं आया । 5 अगस्त को वह अपने एक साथी के साथ दिल्ली आया । लोकतंत्र की खुशबू वाले शहर दिल्ली में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दफ्तर है, वहीं तकलीफ बताने से शायद पुलिस का खौफ उसके घर में नहीं होगा । यही सोच कर चन्द्रपुर के वकील एकनाथ साल्वे की चिट्टी लेकर मनकु दिल्ली पहुंचा । वकील सालवे उनके पिता रेणु केजीराम उइके के भी वकील थे । मनकु के मुताबिक उनके पिता को नक्सलियों का हिमायती बताकर टाडा के तहत अक्तूबर 1993 में गिरफ्तार किया गया । टाडा की धारा 3,4,5 लगायी गयी और आईपीसी 307,334,353,435 और आर्म्स एक्ट 3/25 दर्ज की गयी । लेकिन रेणु केजीराम उइके की मौत 20 फरवरी 1995 को नागपुर जेल में हो गयी । मौत की जानकारी देने पुलिसकर्मी ही घर पहुंचे थे । गढ़चिरोली के सावरगांव के घर में तब पांच साल के मनकु को कुछ धुंधला सा याद है कि कैसे पुलिस घर पर आयी और मां उसके बाद रोने लगी । लेकिन मां को तीन दिन बीद ही पुलिस पकड़ कर ले गयी । मनकु उइके के मुताबिक उस दिन से लेकर आजतक पुलिस लगातार उसके और गांव में जिसके मन चाहे उसके घर पर जाती है । दरवाजा खटखटाती है । मनचाहे पुरुष -महिला को पकड़ कर आरोप लगाती है । नागपुर मुख्यालय में अपनी उपल्ब्धि की जानकारी यह कहते हुये देती है कि खूखांर माओवादी उसकी गिरफ्त में हैं । मनकु इससे तंग आकर गढ़चिरोली से सटे चन्द्रपुर जिले में नौकरी करने आ गया । लेकिन पुलिस ने उसे वहां भी नहीं छोड़ा । मनकु समझ नही पाता कि वह अपनी जिन्दगी कैसे जिये । आदिवासियों में शादी जल्दी हो जाती है। लेकिन पुलिस के खौफ से उसने शादी भी नहीं की । पिता की मौत जेल में हुई । उसकी भरपायी से लेकर अपने जीने के हक का कच्चा चिट्टा लेकर मनकु दो बार मानवाधिकार आयोग के दरवाजे से भी वापस लौट आया । पिता मरे थे तो डॉक्टरी रिपोर्ट में कहा गया था आदिवासी जेल के वातावरण में रह नही सका, इसलिये मर गया । मनकु को दिल्ली में मानवाधिकार आयोग के एक अधिकारी ने समझाया तुम्हारी भाषा कोई समझ नहीं पाता इसलिये वकील की लिखी अर्जी छोडकर चले जाओ । मनकु उइके अर्जी छोड कर जा चुका है।

उत्तर प्रदेश का शहर है सोनभद्र । इसी शहर का है विनोद । विनोद ने जिस शहर में बचपन गुजारा । जहां के स्कूल में पढ़ाई की,जहां माता-पिता की अंगुली पकड कर जीने का सलीका सिखा । उसी शहर में आज उसका दर्द सुननेवाला कोई नहीं है । पिछले तीन साल से जेल में बंद था । विनोद को पता नहीं कि किस आरोप में उसे पकड़ा गया । उसे इतना जरुर पता है कि पांच साल पहले उसकी नौकरी इसलिये छूट गयी कि जिस निजी कंपनी में वह काम करता था, उस कंपनी को बेच दिया गया । हर्जाने की मांग उसने भी की । विरोध प्रदर्शन के बीच पुलिस ने गोली चलायी । तीन मरे, चौबिस घायल हुये । कई घायलों को मरा हुआ बता कर कंपनी ने पल्ला झाडा । उसमे विनोद भी है । 2003 में कंपनी के दस्तावेजो में मृत विनोद 2004 में पहली बार दिल्ली पहुचा था । राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दरवाजे पर गया । यह बताकर आया कि कैसे उसकी नौकरी गयी । कैसे उसे हर्जाना नहीं मिला । कैसे उसे मरा हुआ मान लिया गया है । आयोग ने वायदा किया था कि वह विनोद को जल्द ही जीवित कर देगी और उसे हक दिलायेगी । लोकतंत्र की सौंधी खुशबू लेकर विनोद सोनभद्र लौटा तो गरुर में था । लेकिन उसके शहर से लोकतंत्र का पलायन हो चुका है, उसका एहसास उसे सात दिनों के भीतर ही हो गया । पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया । विनोद को तो कुछ पता ही नहीं है कि आरोप क्या है। लेकिन जनवरी 2008 में जब वह जेल से जमानत पर छूटा तो उसे हर हफ्ते थाने में हाजिरी देने का निर्देश दिया गया । विनोद को लगा अब वह कंपनी से हर्जाने की मांग कर सकता है । लेकिन उसकी मांग फिर से भारी पड़ गयी, क्योकि जिस जमीन पर बनी कंपनी में वह काम करता था, संयोग से वह जमीन थर्मल पावर प्लांट के लिये किसी ने खरीद ली । कंपनी की बिल्डिंग तोड़ी जा चुकी है । लेकिन जो कंपनी ठीक पहले तक काम कर रही थी, उसके कर्मचारी किसी हर्जाने की मांग न करे, उसके लिये नये मालिक ने स्थानीय नेता और पुलिस को ठेका दे दिया । ऐसे में अचानक पुरानी कंपनी के कर्मचारी विनोद को पुलिस बर्दाश्त नहीं कर पायी और पहले उसकी जमकर धुनायी हुई और फिर जेल में बंद कर दिया गया । आरोप क्या लगाया गया, इसकी जानकारी उसे न तब दी गयी न ही जुलाई के महीने में रिहायी के वक्त । हां, पहली बार राष्ट्रहित के खिलाफ विनोद की हरकतों को माना गया । गैरकानूनी संगठनो के साथ उसके ताल्लुकात जुड़े । माओवादियों के साथ रिश्ते रखने का आरोप उस पर जरुर लग गया । लेकिन कैसे रिश्ते हैं, उसने क्या ऐसा किया जिसके बाद पुलिस ने यह आरोप उस पर लगाया, उसकी जानकारी उसे आज भी नहीं है । इसी खाके-चिट्टे को लेकर विनोद एकबार फिर राष्टीय मानवाधिकार आयोग के पास पहुंचा है । लेकिन इस बार वह आयोग से गांरटी चाहता है कि जब वह गांव लौटे तो फिर पुलिस उसे गिरफ्तार कर जेल में न ठूंस दे । मानवाधिकार आयोग ने भरोसा दिलाया है, गारंटी नहीं । इसलिये विनोद सीधे सोनभद्र नही लौटा है, बल्कि लखनऊ में राज्यमानवाधिकार आयोग को बताने गया है कि वह सोनभद्र लौट रहा है।

सवाल यही है कि देश में जीने के हक को कोई नहीं छिनेगा, इसकी गांरटी देने वाला भी कोई नहीं है । और लोकतंत्र के पलायन के बाद अब आरोपी को साबित करना है कि वह दोषी नहीं है। राज्य की कोई जिम्मेदारी नागरिकों को लेकर नहीं है।

12 comments:

Shambhu Choudhary said...

पुण्य प्रसुन बाजपेयी जी को मेरा सादर प्रणाम स्वीकार हो। आपके ब्लॉग पर आने का अवसर मिला। वैसे तो आपके शब्दों का लोहा सारा हिन्दी जगत तो मानता ही है। मैं तो कायल ही हो गया हूँ। एक-एक शब्द जैसे आम लोगों की ज़बान से चुन-चुन कर आपने मोती की माला पिरो दी है। ऎसा लगता हो मानो शब्दों के समन्दर में गोता लगाकर, मोती जमा कर लेते हैं आप। मेरा आपको सलाम। - शम्भु चौधरी

डॉ .अनुराग said...

जी नही राज्य केवल विशिष्ट नागरिको की जिम्मेदारी लेता है ....सड़क चलते आम लोगो की नही ......

राजीव रंजन प्रसाद said...

प्रसून जी,


आपने लिखा है कि "सवाल यही है कि देश में जीने के हक को कोई नहीं छिनेगा, इसकी गांरटी देने वाला भी कोई नहीं है । और लोकतंत्र के पलायन के बाद अब आरोपी को साबित करना है कि वह दोषी नहीं है। राज्य की कोई जिम्मेदारी नागरिकों को लेकर नहीं है।" सर्वप्रथम तो आपके इस शोधपरक आलेख के प्रस्तुतिकरण का आभार।

किंतु उत्तर? लोकतंत्र के सभी स्तंभ तंत्र के बंधक हैं जिसमें वह माध्यम भी है जिससे आप स्वयं भी जुडे हुए है। आम आदमी के पास स्वर का न होना ही एसे सवाल खडे करता है जिसके उत्तर के लिये व्यवस्था के खिलाफ सवाल उठते हैं...क्या अंधेरे से निकलने का रास्ता है?


***राजीव रंजन प्रसाद

www.rajeevnhpc.blogspot.com
www.kuhukakona.blogspot.com

Rajesh R. Singh said...
This comment has been removed by the author.
Rajesh R. Singh said...

वाजपेयी जी इस देश में मानवाधिकारो स्थिति काफी दयनीय है इसके बारे में यहाँ चर्चा करना भी गुनाह है आज-कल कुछ लोगों द्वारा मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को आतंकवादियों की 'बी' टीम के नाम से पुकारा जा रहा है कृपया आप इस ब्लाग को देखें http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2008/08/secular-intellectuals-terrorism-nation.html बहरहाल मै आपको आज की घटना बता रहा हूँ आज सुबह में मुंबई के नजदीक ठाणे जिले के कल्याण स्थित वडवली में कलंदर इरानी एवं उसके लड़के कमर इरानी को घर से पकड़ कर थाने ले जाते समय गोली मार दी जिसमे कलंदर इरानी मारा गया और उसका लड़का कमर इरानी जख्मी हो गया उसका इस समय कल्याण सीटी अस्पताल में उपचार चल रह है पुलिस का कहना है कि जब वह इन्हे पकड़ कर ले जा रही थी उसी समय ४० से ५० लोग आकर जबरन इन दोनों को छुडाने लगी इसी आपा-धापी में गोली चली पुलिस का यह भी कहना है कि इन लोगों का कल्याण, ड़ोंबीवली, और मुंबई में अनेक आपराधिक मामले दर्ज है मामला काफी संगीन है इसकी गहरी पड़ताल होनी चाहिए

Sanjeet Tripathi said...

अभी रायपुर प्रेस क्लब में "नक्सल समस्या" पर व्याख्यान माला के तहत रमन सिंह, महेंद्र कर्मा और धर्मराज महापात्रा के लेक्चर सुन कर आया और आते ही ई मेल में आपकी यह पोस्ट मिली।

बाजपेयी जी, मुझे लगता है कि बतौर नागरिक इन स्थितियों के लिए हम भी उतने ही जिम्मेदार है जितने कि अन्य कारक।

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' said...

प्रसुन जी तानाशाही सिर्फ तंत्र की ही नहीं है. तंत्र को तानाशाह बनाने वाले पहले इसी समाज में राजशाही चलाते हैं और उसी औरा से प्रभावित होकर फिर वो तंत्र का हिस्सा बन जाते हैं. मैं भी एक उदाहरण देकर अपनी बात समझाता हूं-

मैं तो पांच-सात साल का ही रहा होउंगा. आगरा के पास मेरे गांव पनवारी में पनवारी कांड नाम से मशहूर दलित-सवर्ण(सही मायने में जाट-जाटव) दंगा हुआ था. दंगा क्या था दो परिवारों की निजी वैमनस्यता को पूरे समाज, गांव और जिले ने झेला. उन्हीं परिवारों में से, उसी गांव और उसी दंगे से निकलकर दो लोग उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ही सरकार में मंत्री बने. दोनों पर कई बार कई आपराधिक मामले भी दर्ज हुए, पर तानाशाही आज भी बरकरार है. आज वो तंत्र का हिस्सा हैं, बड़े नेता हैं लेकिन उस दंगे से पहले तक उनका कोई बड़ा वजूद नहीं था. मेरे कहने का आशय सिर्फ इतना है कि इस तंत्र को निष्ठुर और तानाशाह बनाने वाले भी इसी समाज से निकलते हैं और अपने अति-स्वार्थी निजी हितों के लिए पूरे सिस्टम को प्रयोग करते हैं...
चाय का वक्त है, आपको पढ़ रहा हूं, अच्छा लगा.
शाम को देखूंगा भी.
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
तहलका

सुजाता said...

प्रसून जी,
आपका ब्लॉग देखकर अच्छा लगा।लेवल एक बात खटक रही है।आपके प्रोफाइल को पढकर यह आभास होता है कि यह ब्लॉग पुण्य प्रसून वाजपई नही कोई और लिख रहा है।इससे आपकी निजता का अहसास नही हो पाता जो कि किसी ब्लॉग पर आने के लिए बहुत हद तक ज़िम्मेदार होती है।

विष्णु बैरागी said...

संजीत की बात हमारी वांछित भूमिका रेखांकित करती है । हम लोकतन्‍त्र की दुहाइयां तो देते हैं लेकिन लोकतन्‍त्र में शरीक नहीं होते । लोकतन्‍त्र का मतलब हमने केवल वोट देने तक या फिर वोट न देकर प्रणीली का मखौल उडाने तक ही मान लिया है । हम कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं । 'लोकतन्‍त्र' में लोक आगे है और 'तन्‍त्र' उसका अनुगामी । लेकिन 'लोक' की खामोशी के चलते 'तन्‍त्र' ने लोक पर सवारी कर रखी है । हममें से प्रत्‍येक इसी बात से खुश है कि 'तन्‍त्र' को ढोने से वह बचा हुआ है और मेरे सिवाय बाकी सबकी पीठ पर सचार है । जबकि वह मेरी पीठ पर भी सवार है । ऐसी स्थिति में हममें से प्रत्‍येक इस बात से भी तसल्‍ली कर लेता है कि वह अकेला ही 'तन्‍त्र' को नहीं ढो रहा है, सब ढो रहे हैं ।
प्रसूनजी, आपने बहुत ही सुन्‍दर और प्रभावशाली शब्‍दों में बात पेश की है किन्‍तु क्षमा कीजिए इस सबमे नया और अनोखा-अनूठा-असामान्‍य कुछ भी नहीं है , यह तो गांव-गांव, गली-गली का किस्‍सा है ।
संजीत की बात में न केवल दम है बल्कि वही आज की आवश्‍यकता भी है । लेकिन शुरु कौन करे । हर कोई चाहता है कि शुरुआत कोई और करे । सो, 'तन्‍त्र' सुरक्षित है और 'लोक' उसे ढोये जा रहा है, ढोता ही रहेगा ।

parth pratim said...

aap ke is sach ka dusra pahlu bhi hai.in maovadiyon ke hath kai begunahon ke khoon se bhi range huye hain.jinke liye manvadhikaar wale aksar chuppi sadhna behtar samjhte hain. kisi ke chehre par ye to nahi likha hota na, ki wo rastra-virodhi hai.

madangopal brijpuria said...

पुण्य प्रसुन बाजपेयी जी को मेरा सादर प्रणाम स्वीकार हो। मै पिछले छै साल से आप के स्तर तक अपनी बात पहुचाने के लिये प्रयास कर रहा हूँ ,मगर अभी तक सफलता नहीं मिली | मै एक आईडिया आपको बतलाना चाहता हूँ और आपका सहयोग भी चाहता हूँ |देश की जो हालात है उसमें सभी अपने अपने तरीकों से समाधान बतलाते है | मै भी एक बात आप से शेयर करना चाहता हूँ | यदि देश की करेंसी को बंद करके बस्तु विनिमय के लिये एक बहुत सरल तरीका जनता को दिया जाये | जिससे हर एक ट्रांजेक्सन बैंक द्वारा हो | तो देश की लाखों समस्याये मिट जायेगी | मेरे पास पूरा प्लान तैयार है | जिसमें एक भी तकलीफ का सामना नहीं करना पडेगा | कृपया विस्तार से जानने के लिये एक बार मेरे मोब. पर कांटेक्ट अवश्य करे | मेरा मोब . न . 09300858200 मदन ( करेली )म.प्र.

madangopal brijpuria said...

पुण्य प्रसुन बाजपेयी जी को मेरा सादर प्रणाम स्वीकार हो। मै पिछले छै साल से आप के स्तर तक अपनी बात पहुचाने के लिये प्रयास कर रहा हूँ ,मगर अभी तक सफलता नहीं मिली | मै एक आईडिया आपको बतलाना चाहता हूँ और आपका सहयोग भी चाहता हूँ |देश की जो हालात है उसमें सभी अपने अपने तरीकों से समाधान बतलाते है | मै भी एक बात आप से शेयर करना चाहता हूँ | यदि देश की करेंसी को बंद करके बस्तु विनिमय के लिये एक बहुत सरल तरीका जनता को दिया जाये | जिससे हर एक ट्रांजेक्सन बैंक द्वारा हो | तो देश की लाखों समस्याये मिट जायेगी | मेरे पास पूरा प्लान तैयार है | जिसमें एक भी तकलीफ का सामना नहीं करना पडेगा | कृपया विस्तार से जानने के लिये एक बार मेरे मोब. पर कांटेक्ट अवश्य करे | मेरा मोब . न . 09300858200 मदन ( करेली )म.प्र.